मेवाड़ के महाराणा लाखा ने बूँदी के गढ़ को जीतने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करने की सौगंध खायी लेकिन बूँदी के गढ़ को जीत न सके। राणा के प्राण-संकट की स्थिति में सभासदों ने रास्ता निकाला कि बूँदी किले के प्रतिरूप (मिट्टी के किले) को ध्वस्त करके राणा की कसम तुड़वाई जाय। जीतने के लिए मिट्टी का किला बनवाया गया, किंतु एक हाड़ा राजपूत योद्धा ने किले के प्रतिरूप की रक्षा के लिए तलवार उठा ली और उसकी रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। यह कविता उसी प्रसंग पर आधारित है।
आज भी चित्तौर का सुन नाम कुछ जादू भरा,
चमक जाती चंचला-सी चित्त में करके त्वरा।
जिस समय लाखा नृपति सिंहासनस्थि थे वहाँ,
उस समय की यह विकट घटना प्रकट देखो यहाँ॥
एक बार अमर्ष पूर्वक तप्त होकर त्वेष से,—
प्रण किया ऐसा उन्होंने एक हेतु विशेष से—
“दुर्ग बूँदी का स्वयं तोड़े बिना ही अब कहीं—
ग्रहण जो मैं अन्न या जल करूँ तो क्षत्रिय नहीं॥”
कर दिया प्रण तो उन्होंने क्रोध में ऐसा कड़ा,
किंतु बूँदी-दुर्ग का था तोड़ना दुष्कर बड़ा।
इसलिए उनके शुभैषी सचिव चिंता में पड़े,
रह गए चित्रस्थ-से वे चकित ज्यों के त्यों खड़े॥
सोच एक उपाय फिर वे निज विवेक विचार से,
विनय राना से लगे करने अनेक प्रकार से।
देख सकते हैं अशुभ क्या स्वामि का सेवक कभी?
हों न हों कृत-कार्य तो भी यत्न करते हैं सभी॥
“वीरवर्योचित हुआ यह प्रण यदपि श्रीमान का,
काम है यह योग्य ही श्रीराम की संतान का।
वैर-शुद्धि किए बिना वर वीर रह सकते नहीं,
स्वाभिमानी जन कभी अपमान सह सकते नहीं॥
दुर्ग-बूँदी का यदपि हमको प्रथम है तोड़ना,
किंतु कैसे हो सकेगा अन्न-जल का छोड़ना?
खान-पान बिना किसी के प्राण रह सकते नहीं,
प्राण जाने पर भला प्रण पूर्ण हो सकता नहीं?
प्रेरणा करती प्रकृति जिस कार्य के व्यापार में,
त्राण हो सकता नहीं उसके बिना संसार में।
नित्य-कृत्य न छोड़ कर आज्ञा हमें दीजे अत:,
भृत्य ही हैं किसलिए जो श्रम करे स्वामी स्वत:॥
इष्ट-सिद्धि कहाँ रही फिर जब न साधन ही रहा,
कार्य करना भूप का आदेश देना ही कहा।
हो गया पूरा उसी क्षण आपका यह प्रण नया,
कह दिया जो सज्जनों ने जान लो वह हो गया॥
हो प्रथम प्रस्तुत हमें चलना यहाँ से दूर है,
पहुँच कर बूँदी पुन: करना समर भरपूर है।
तब कहीं अवसर क़िले के तोड़ने का आएगा,
काम क्या तब तक भला भोजन बिना चल जाएगा?
दिन लगेंगे क्या न कुछ भी इस कठिनतर काम में?
कौन जाने काल कितना नष्ट हो संग्राम में?
तोड़ने देंगे हमें क्या दुर्ग शत्रु बिना लड़े?
देख सकता कौन अपना सर्वनाश खड़े-खड़े?
अस्तु, कृत्रिम दुर्ग तब तक तोड़ बूँदी का यहीं,
कीजिए निज नियम रक्षा, छोड़िए भोजन नहीं।
देह रक्षा योग्य है निज इष्ट-साधन के लिए,
है असंभव कार्य सब तन की बिना रक्षा किए॥
दुर्ग को जो तोड़ने का आपने प्रण है किया,
हो सकेगी क्या कभी तनु के बिना उसकी क्रिया?
इसलिए तब तक उचित है नियम पालन विधि यही,
तनु रहे, साधन सफल हो, विज्ञता बस है वही॥
अन्न जल को छोड़ने की आपकी सुन कर कथा,
तज न देंगे अन्न जल क्या अन्य जन भी सर्वथा?
यह महान अनिष्ट होगा जानिए निश्चय इसे,
त्याग दें जो आप तो फिर ग्राह्य हो भोजन किसे?”
युक्ति से समझा बुझा कर मंत्रियों ने भूप को,
तोड़ना निश्चित किया उस दुर्ग के प्रतिरूप को।
अस्तु बूँदी दुर्ग कृत्रिम शीघ्र बनवाया गया,
मच गया चित्तौर में तब एक आंदोलन नया॥
उस समय बूँदी-निवासी भृत्य राना का भला,
वीर हाड़ा कुंभ था आखेट से आता चला।
साथियों के सहित जब आया वहाँ पर वह कृती,
देख उसको भी पड़ी उस दुर्ग की वह प्रतिकृती॥
तब कुतूहल-वश लगा वह पूछने कारण सही,
किंतु उसके जानने पर पूर्व-सी न दशा रही।
हो गया गंभीर मुख, संपूर्ण आतुरता गई,
भृकुटि-कुंचित भाल पर प्रकटी प्रभा तेजोमयी॥
वीर कुंभ न सह सका यह मातृभूमि-तिरस्क्रिया,
क्षत्रियोचित धर्म ने उसको विमोहित कर दिया।
यदपि कृत्रिम किंतु वह भव-भूमि ही तो थी अहो!
स्वाभिमानी जन उसे फिर भूलता कैसे अहो?
त्याग पादत्राण, रख मारे हुए मृग को वहीं,
सुध रही उस वीर को उस काल अपनी भी नहीं।
वंदना उस दुर्ग की करने लगा वह भाव से,
शीश पर उसने वहाँ की रज चढ़ाई चाव से॥
शीघ्र रक्त-प्रवाह उसकी देह में होने लगा,
बीज विद्युद्वेग से वीरत्व का बोने लगा।
मातृभूमि-स्नेह-जल निश्चल हृदय धोने लगा,
मान मन को मत्त करके मृत्यु-भय खोने लगा॥
यदपि सर्व शरीर उसका जल रहा था त्वेष से,
किंतु मौन न रह सका वह भक्ति के उन्मेष से।
उस समय उद्गार सहसा जो निकल उसके पड़े,
अर्थ-पूरित रत्न हैं वे शुचि सुवर्णों में, जड़े॥
“पुष्ट हो जिसके अलौकिक अन्न-नीर समीर से,
मैं समर्थ हुआ सभी विध रह विरोग शरीर से।
यदपि कृत्रिम रूप में वह मातृभूमि समक्ष है,
किंतु लेना योग्य क्या उसका न मुझको पक्ष है?
जन्मदात्री, धात्रि! तुझसे उऋण अब होना मुझे,
कौन मरे प्राण रहते देख सकता है तुझे?
मैं रहूँ चाहे जहाँ, हूँ किंतु तेरा ही सदा,
फिर भला कैसे न रक्खूँ ध्यान तेरा सर्वदा?
यदपि मेरा काल अब मेरे निकट आता चला,
किंतु जीने की अपेक्षा मान पर मरना भला।
जब कि एक न एक दिन मरना सभी को है यहाँ,
फिर मुझे अवसर मिलेगा आज के जैसा कहाँ?”
जानुओं को टेक तब वह प्रेम अद्भुत में पगा,
देव-सम उस दुर्ग की रक्षा वहाँ करने लगा।
देख कर उस काल उसको जान पड़ता था यही—
मूर्तिमान महत्व से मंडित हुई मानों मही॥
वध किया मृग पास रक्खे, धनुष धारे धीर ज्यों,
दुर्ग के द्वारे सजग, शोभित हुआ वह वीर यों—
लौट कर आखेट से निज मान मद में मोहता—
गिरि-गुहा-द्वारस्थ ज्यों निर्भय मृगाधिप सोहता॥
वीर कुंभ इसी तरह निश्चय वहाँ बैठा रहा,
शुद्ध साधन सिद्धि की संप्राप्ति में पैठा रहा।
तब प्रतिज्ञा पालने को शस्त्र लेकर हाथ में,
आ गए राना वहाँ कुछ सैनिकों के साथ में॥
देखते ही कुंभ उनको, धनुष पर रख शर कड़ा,
सहचरों के सहित उठकर हो गया रण को खड़ा।
उस समय उसकी रुचिरता देखने के योग्य थी,
शील-युत हठ-पूर्ण थिरता देखने ही योग्य थी॥
दुर्ग के नाशार्थ ज्यों-ज्यों वे निकट आने लगे,
भाव त्यों-त्यों कुंभ के अत्युग्रता पाने लगे।
क्रोध से उसके वदन पर स्वेद-जल बहने लगा,
पोंछ कर उसको अत: यों वचन कहने लगा—
“सावधान! यहाँ न आना, दूर ही रहना वहीं,
देखना, निज बाण मुझको छोड़ना न पड़े कहीं।
भृत्य होने से तुम्हारा मैं जताने को रहा,
अन्यथा कब का यहाँ पर दीखता शोणित बहा!
प्राण बेचे हैं तुम्हें बेचा न मैंने मान है,
धर्म के संबंध में नृप और रंक समान है।
बंधु भी अवहेलना करने तुम्हारी जो चले,
क्षोभ से तो क्या तुम्हारा उर न उस पर भी जले?
स्वर्ग से भी श्रेष्ठ जननी जन्म-भूमि कही गई,
सेवनीया है सभी की वह महा महिमामयी।
फिर अनादर क्या उसी का मैं खड़ा देखा करूँ?
भीरु हूँ क्या मैं अहो! जो मृत्यु से मन में डरूँ?
तोड़ने दूँ क्या इसे नक़ली क़िला मैं मान के,
पूजते हैं भक्त क्या प्रभु-मूर्ति को जड़ जान के?
भ्रांत जन उसको भले ही जड़ कहें अज्ञान से,
देखते भगवान को धीमान उसमें ध्यान से॥
है न कुछ चित्तौर यह, बूँदी इसे अब मानिए,
मातृभूमि पवित्र मेरी पूजनीया जानिए।
कौन मेरे देखते फिर नष्ट कर सकता इसे?
मृत्यु माता की जगत में सह्य हो सकती किसे?
योग्य क्या सीसोदियों को इस तरह प्रण-पालना?
है भला क्या सत्य का संहार यों कर डालना!
सरल इससे तो यही थी साध लेनी साधना,
तोड़ लेते चित्त ही में दुर्ग बूँदी का बना!
अंत में फिर मैं यही कहता तुम्हें प्रभु जान के,
लौट जाओ तुम यहाँ से बात मेरी मान के।
अन्यथा फिर मैं न जानूँ, दोष मत देना मुझे,
प्राण-नाशक बाण मेरे हैं विषम विष में बुझे॥”
यों वचन सुन कुंभ के विस्मित हुए राना बड़े,
बढ़ सके आगे न सहसा रह गए रुक कर खड़े।
ग्लानि, लज्जा, क्रोध आदिक भाव बहु मन में जगे,
किंतु वे इस भाँति फिर उत्तर उसे देने लगे—
“वीर कुंभ! विचार ऊँचे हैं तुम्हारे सर्वथा,
किंतु दोषारोप अब मुझ पर तुम्हारा है वृथा!
वीर बूँदी के स्वयं मौजूद हो जब तुम यहाँ,
फिर कहो, प्रण-पालना झूठा रहा मेरा कहाँ?”
क्रुद्ध हो तब कुंभ ने शर से उन्हें उत्तर दिया,
किंतु राना ने उसे झट ढाल पर ही ले लिया।
फिर वहाँ कुछ देर को पूरी लड़ाई मच गई,
वध किये उस वीर ने मरते हुए भी रिपु कई॥
उष्ण शोणित-धार से धरणी वहाँ की धो गई,
कुंभ के इस कृत्य से कृतकृत्य बूँदी हो गई।
इस तरह उस वीर ने प्रस्थान सुरपुर को किया,
राजपूतों की धरा को कीर्तिधवलित कर दिया॥
aaj bhi chittaur ka sun nam kuch jadu bhara,
chamak jati chanchala si chitt mein karke twara
jis samay lakha nripati sinhasnasthi the wahan,
us samay ki ye wicket ghatna prakat dekho yahan॥
ek bar amarsh purwak tapt hokar twesh se,—
pran kiya aisa unhonne ek hetu wishesh se—
“durg bundi ka swayan toDe bina hi ab kahin—
grahn jo main ann ya jal karun to kshatriy nahin॥”
kar diya pran to unhonne krodh mein aisa kaDa,
kintu bundi durg ka tha toDna dushkar baDa
isliye unke shubhaishi sachiw chinta mein paDe,
rah gaye chitrasth se we chakit jyon ke tyon khaDe॥
soch ek upay phir we nij wiwek wichar se,
winay rana se lage karne anek prakar se
dekh sakte hain ashubh kya swami ka sewak kabhi?
hon na hon krit kary to bhi yatn karte hain sabhi॥
“wirwaryochit hua ye pran yadapi shriman ka,
kaam hai ye yogya hi shriram ki santan ka
wair shuddhi kiye bina war weer rah sakte nahin,
swabhimani jan kabhi apman sah sakte nahin॥
durg bundi ka yadapi hamko pratham hai toDna,
kintu kaise ho sakega ann jal ka chhoDna?
khan pan bina kisi ke paran rah sakte nahin,
paran jane par bhala pran poorn ho sakta nahin?
prerna karti prakrti jis kary ke wyapar mein,
tran ho sakta nahin uske bina sansar mein
nity krity na chhoD kar aagya hamein dije atah,
bhrity hi hain kisaliye jo shram kare swami swtah॥
isht siddhi kahan rahi phir jab na sadhan hi raha,
kary karna bhoop ka adesh dena hi kaha
ho gaya pura usi kshan aapka ye pran naya,
kah diya jo sajjnon ne jaan lo wo ho gaya॥
ho pratham prastut hamein chalna yahan se door hai,
pahunch kar bundi punah karna samar bharpur hai
tab kahin awsar qile ke toDne ka ayega,
kaam kya tab tak bhala bhojan bina chal jayega?
din lagenge kya na kuch bhi is kathintar kaam mein?
kaun jane kal kitna nasht ho sangram mein?
toDne denge hamein kya durg shatru bina laDe?
dekh sakta kaun apna sarwanash khaDe khaDe?
astu, kritrim durg tab tak toD bundi ka yahin,
kijiye nij niyam rakhsha, chhoDiye bhojan nahin
deh rakhsha yogya hai nij isht sadhan ke liye,
hai asambhaw kary sab tan ki bina rakhsha kiye॥
durg ko jo toDne ka aapne pran hai kiya,
ho sakegi kya kabhi tanu ke bina uski kriya?
isliye tab tak uchit hai niyam palan widhi yahi,
tanu rahe, sadhan saphal ho, wigyta bus hai wahi॥
ann jal ko chhoDne ki apaki sun kar katha,
taj na denge ann jal kya any jan bhi sarwatha?
ye mahan anisht hoga janiye nishchay ise,
tyag den jo aap to phir grahy ho bhojan kise?”
yukti se samjha bujha kar mantriyon ne bhoop ko,
toDna nishchit kiya us durg ke pratirup ko
astu bundi durg kritrim sheeghr banwaya gaya,
mach gaya chittaur mein tab ek andolan naya॥
us samay bundi niwasi bhrity rana ka bhala,
weer haDa kumbh tha akhet se aata chala
sathiyon ke sahit jab aaya wahan par wo kriti,
dekh usko bhi paDi us durg ki wo pratikriti॥
tab kutuhal wash laga wo puchhne karan sahi,
kintu uske janne par poorw si na dasha rahi
ho gaya gambhir mukh, sampurn aturta gai,
bhrikuti kunchit bhaal par prakti prabha tejomyi॥
weer kumbh na sah saka ye matribhumi tiraskriya,
kshatriyochit dharm ne usko wimohit kar diya
yadapi kritrim kintu wo bhaw bhumi hi to thi aho!
swabhimani jan use phir bhulta kaise aho?
tyag padatran, rakh mare hue mrig ko wahin,
sudh rahi us weer ko us kal apni bhi nahin
wandna us durg ki karne laga wo bhaw se,
sheesh par usne wahan ki raj chaDhai chaw se॥
sheeghr rakt prawah uski deh mein hone laga,
beej widyudweg se wiratw ka bone laga
matribhumi sneh jal nishchal hirdai dhone laga,
man man ko matt karke mirtyu bhay khone laga॥
yadapi sarw sharir uska jal raha tha twesh se,
kintu maun na rah saka wo bhakti ke unmesh se
us samay udgar sahsa jo nikal uske paDe,
arth purit ratn hain we shuchi suwarnon mein, jaDe॥
“pusht ho jiske alaukik ann neer samir se,
main samarth hua sabhi widh rah wirog sharir se
yadapi kritrim roop mein wo matribhumi samaksh hai,
kintu lena yogya kya uska na mujhko paksh hai?
janmdatri, dhatri! tujhse urn ab hona mujhe,
kaun mare paran rahte dekh sakta hai tujhe?
main rahun chahe jahan, hoon kintu tera hi sada,
phir bhala kaise na rakkhun dhyan tera sarwada?
yadapi mera kal ab mere nikat aata chala,
kintu jine ki apeksha man par marna bhala
jab ki ek na ek din marna sabhi ko hai yahan,
phir mujhe awsar milega aaj ke jaisa kahan?”
januon ko tek tab wo prem adbhut mein paga,
dew sam us durg ki rakhsha wahan karne laga
dekh kar us kal usko jaan paDta tha yahi—
murtiman mahatw se manDit hui manon mahi॥
wadh kiya mrig pas rakkhe, dhanush dhare dheer jyon,
durg ke dware sajag, shobhit hua wo weer yon—
laut kar akhet se nij man mad mein mohta—
giri guha dwarasth jyon nirbhay mrigadhip sohta॥
weer kumbh isi tarah nishchay wahan baitha raha,
shuddh sadhan siddhi ki samprapti mein paitha raha
tab prtigya palne ko shastr lekar hath mein,
a gaye rana wahan kuch sainikon ke sath mein॥
dekhte hi kumbh unko, dhanush par rakh shar kaDa,
sahachron ke sahit uthkar ho gaya ran ko khaDa
us samay uski ruchirta dekhne ke yogya thi,
sheel yut hath poorn thirta dekhne hi yogya thee॥
durg ke nasharth jyon jyon we nikat aane lage,
bhaw tyon tyon kumbh ke atyugrta pane lage
krodh se uske wadan par swed jal bahne laga,
ponchh kar usko atah yon wachan kahne laga—
“sawdhan! yahan na aana, door hi rahna wahin,
dekhana, nij ban mujhko chhoDna na paDe kahin
bhrity hone se tumhara main jatane ko raha,
anyatha kab ka yahan par dikhta shonait baha!
paran beche hain tumhein becha na mainne man hai,
dharm ke sambandh mein nrip aur rank saman hai
bandhu bhi awhelana karne tumhari jo chale,
kshaobh se to kya tumhara ur na us par bhi jale?
swarg se bhi shreshth janani janm bhumi kahi gai,
sewniya hai sabhi ki wo maha mahimamyi
phir anadar kya usi ka main khaDa dekha karun?
bhiru hoon kya main aho! jo mirtyu se man mein Darun?
toDne doon kya ise naqli qila main man ke,
pujte hain bhakt kya prabhu murti ko jaD jaan ke?
bhrant jan usko bhale hi jaD kahen agyan se,
dekhte bhagwan ko dhiman usmen dhyan se॥
hai na kuch chittaur ye, bundi ise ab maniye,
matribhumi pawitra meri pujniya janiye
kaun mere dekhte phir nasht kar sakta ise?
mirtyu mata ki jagat mein sahy ho sakti kise?
yogya kya sisodiyon ko is tarah pran palna?
hai bhala kya saty ka sanhar yon kar Dalna!
saral isse to yahi thi sadh leni sadhana,
toD lete chitt hi mein durg bundi ka bana!
ant mein phir main yahi kahta tumhein prabhu jaan ke,
laut jao tum yahan se baat meri man ke
anyatha phir main na janun, dosh mat dena mujhe,
paran nashak ban mere hain wisham wish mein bujhe॥”
yon wachan sun kumbh ke wismit hue rana baDe,
baDh sake aage na sahsa rah gaye ruk kar khaDe
glani, lajja, krodh aadik bhaw bahu man mein jage,
kintu we is bhanti phir uttar use dene lage—
“weer kumbh! wichar unche hain tumhare sarwatha,
kintu dosharop ab mujh par tumhara hai writha!
weer bundi ke swayan maujud ho jab tum yahan,
phir kaho, pran palna jhutha raha mera kahan?”
kruddh ho tab kumbh ne shar se unhen uttar diya,
kintu rana ne use jhat Dhaal par hi le liya
phir wahan kuch der ko puri laDai mach gai,
wadh kiye us weer ne marte hue bhi ripu kai॥
ushn shonait dhaar se dharnai wahan ki dho gai,
kumbh ke is krity se kritakrty bundi ho gai
is tarah us weer ne prasthan surpur ko kiya,
rajputon ki dhara ko kirtidhawlit kar diya॥
aaj bhi chittaur ka sun nam kuch jadu bhara,
chamak jati chanchala si chitt mein karke twara
jis samay lakha nripati sinhasnasthi the wahan,
us samay ki ye wicket ghatna prakat dekho yahan॥
ek bar amarsh purwak tapt hokar twesh se,—
pran kiya aisa unhonne ek hetu wishesh se—
“durg bundi ka swayan toDe bina hi ab kahin—
grahn jo main ann ya jal karun to kshatriy nahin॥”
kar diya pran to unhonne krodh mein aisa kaDa,
kintu bundi durg ka tha toDna dushkar baDa
isliye unke shubhaishi sachiw chinta mein paDe,
rah gaye chitrasth se we chakit jyon ke tyon khaDe॥
soch ek upay phir we nij wiwek wichar se,
winay rana se lage karne anek prakar se
dekh sakte hain ashubh kya swami ka sewak kabhi?
hon na hon krit kary to bhi yatn karte hain sabhi॥
“wirwaryochit hua ye pran yadapi shriman ka,
kaam hai ye yogya hi shriram ki santan ka
wair shuddhi kiye bina war weer rah sakte nahin,
swabhimani jan kabhi apman sah sakte nahin॥
durg bundi ka yadapi hamko pratham hai toDna,
kintu kaise ho sakega ann jal ka chhoDna?
khan pan bina kisi ke paran rah sakte nahin,
paran jane par bhala pran poorn ho sakta nahin?
prerna karti prakrti jis kary ke wyapar mein,
tran ho sakta nahin uske bina sansar mein
nity krity na chhoD kar aagya hamein dije atah,
bhrity hi hain kisaliye jo shram kare swami swtah॥
isht siddhi kahan rahi phir jab na sadhan hi raha,
kary karna bhoop ka adesh dena hi kaha
ho gaya pura usi kshan aapka ye pran naya,
kah diya jo sajjnon ne jaan lo wo ho gaya॥
ho pratham prastut hamein chalna yahan se door hai,
pahunch kar bundi punah karna samar bharpur hai
tab kahin awsar qile ke toDne ka ayega,
kaam kya tab tak bhala bhojan bina chal jayega?
din lagenge kya na kuch bhi is kathintar kaam mein?
kaun jane kal kitna nasht ho sangram mein?
toDne denge hamein kya durg shatru bina laDe?
dekh sakta kaun apna sarwanash khaDe khaDe?
astu, kritrim durg tab tak toD bundi ka yahin,
kijiye nij niyam rakhsha, chhoDiye bhojan nahin
deh rakhsha yogya hai nij isht sadhan ke liye,
hai asambhaw kary sab tan ki bina rakhsha kiye॥
durg ko jo toDne ka aapne pran hai kiya,
ho sakegi kya kabhi tanu ke bina uski kriya?
isliye tab tak uchit hai niyam palan widhi yahi,
tanu rahe, sadhan saphal ho, wigyta bus hai wahi॥
ann jal ko chhoDne ki apaki sun kar katha,
taj na denge ann jal kya any jan bhi sarwatha?
ye mahan anisht hoga janiye nishchay ise,
tyag den jo aap to phir grahy ho bhojan kise?”
yukti se samjha bujha kar mantriyon ne bhoop ko,
toDna nishchit kiya us durg ke pratirup ko
astu bundi durg kritrim sheeghr banwaya gaya,
mach gaya chittaur mein tab ek andolan naya॥
us samay bundi niwasi bhrity rana ka bhala,
weer haDa kumbh tha akhet se aata chala
sathiyon ke sahit jab aaya wahan par wo kriti,
dekh usko bhi paDi us durg ki wo pratikriti॥
tab kutuhal wash laga wo puchhne karan sahi,
kintu uske janne par poorw si na dasha rahi
ho gaya gambhir mukh, sampurn aturta gai,
bhrikuti kunchit bhaal par prakti prabha tejomyi॥
weer kumbh na sah saka ye matribhumi tiraskriya,
kshatriyochit dharm ne usko wimohit kar diya
yadapi kritrim kintu wo bhaw bhumi hi to thi aho!
swabhimani jan use phir bhulta kaise aho?
tyag padatran, rakh mare hue mrig ko wahin,
sudh rahi us weer ko us kal apni bhi nahin
wandna us durg ki karne laga wo bhaw se,
sheesh par usne wahan ki raj chaDhai chaw se॥
sheeghr rakt prawah uski deh mein hone laga,
beej widyudweg se wiratw ka bone laga
matribhumi sneh jal nishchal hirdai dhone laga,
man man ko matt karke mirtyu bhay khone laga॥
yadapi sarw sharir uska jal raha tha twesh se,
kintu maun na rah saka wo bhakti ke unmesh se
us samay udgar sahsa jo nikal uske paDe,
arth purit ratn hain we shuchi suwarnon mein, jaDe॥
“pusht ho jiske alaukik ann neer samir se,
main samarth hua sabhi widh rah wirog sharir se
yadapi kritrim roop mein wo matribhumi samaksh hai,
kintu lena yogya kya uska na mujhko paksh hai?
janmdatri, dhatri! tujhse urn ab hona mujhe,
kaun mare paran rahte dekh sakta hai tujhe?
main rahun chahe jahan, hoon kintu tera hi sada,
phir bhala kaise na rakkhun dhyan tera sarwada?
yadapi mera kal ab mere nikat aata chala,
kintu jine ki apeksha man par marna bhala
jab ki ek na ek din marna sabhi ko hai yahan,
phir mujhe awsar milega aaj ke jaisa kahan?”
januon ko tek tab wo prem adbhut mein paga,
dew sam us durg ki rakhsha wahan karne laga
dekh kar us kal usko jaan paDta tha yahi—
murtiman mahatw se manDit hui manon mahi॥
wadh kiya mrig pas rakkhe, dhanush dhare dheer jyon,
durg ke dware sajag, shobhit hua wo weer yon—
laut kar akhet se nij man mad mein mohta—
giri guha dwarasth jyon nirbhay mrigadhip sohta॥
weer kumbh isi tarah nishchay wahan baitha raha,
shuddh sadhan siddhi ki samprapti mein paitha raha
tab prtigya palne ko shastr lekar hath mein,
a gaye rana wahan kuch sainikon ke sath mein॥
dekhte hi kumbh unko, dhanush par rakh shar kaDa,
sahachron ke sahit uthkar ho gaya ran ko khaDa
us samay uski ruchirta dekhne ke yogya thi,
sheel yut hath poorn thirta dekhne hi yogya thee॥
durg ke nasharth jyon jyon we nikat aane lage,
bhaw tyon tyon kumbh ke atyugrta pane lage
krodh se uske wadan par swed jal bahne laga,
ponchh kar usko atah yon wachan kahne laga—
“sawdhan! yahan na aana, door hi rahna wahin,
dekhana, nij ban mujhko chhoDna na paDe kahin
bhrity hone se tumhara main jatane ko raha,
anyatha kab ka yahan par dikhta shonait baha!
paran beche hain tumhein becha na mainne man hai,
dharm ke sambandh mein nrip aur rank saman hai
bandhu bhi awhelana karne tumhari jo chale,
kshaobh se to kya tumhara ur na us par bhi jale?
swarg se bhi shreshth janani janm bhumi kahi gai,
sewniya hai sabhi ki wo maha mahimamyi
phir anadar kya usi ka main khaDa dekha karun?
bhiru hoon kya main aho! jo mirtyu se man mein Darun?
toDne doon kya ise naqli qila main man ke,
pujte hain bhakt kya prabhu murti ko jaD jaan ke?
bhrant jan usko bhale hi jaD kahen agyan se,
dekhte bhagwan ko dhiman usmen dhyan se॥
hai na kuch chittaur ye, bundi ise ab maniye,
matribhumi pawitra meri pujniya janiye
kaun mere dekhte phir nasht kar sakta ise?
mirtyu mata ki jagat mein sahy ho sakti kise?
yogya kya sisodiyon ko is tarah pran palna?
hai bhala kya saty ka sanhar yon kar Dalna!
saral isse to yahi thi sadh leni sadhana,
toD lete chitt hi mein durg bundi ka bana!
ant mein phir main yahi kahta tumhein prabhu jaan ke,
laut jao tum yahan se baat meri man ke
anyatha phir main na janun, dosh mat dena mujhe,
paran nashak ban mere hain wisham wish mein bujhe॥”
yon wachan sun kumbh ke wismit hue rana baDe,
baDh sake aage na sahsa rah gaye ruk kar khaDe
glani, lajja, krodh aadik bhaw bahu man mein jage,
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।