गहन उदासी धुँधले हुए घरों की
दिखे नींद में किसी अशुभ सपने-सी
निर्दय अँधियारा लेनिनग्राद का
लेता झपकी
गहरा सन्नाटा डाल रहा है घेरा
नीरवता को एक कराह कँपा जाती है
बजा सायरन
हमें तुरत चलना है
नदी तीर पर फटते गोले
हो-हल्ला है
अर्ध निशा में गोले ज्यों ही पगलाते हैं
अर्ध निशा में गोले ज्यों ही कान भेद
नीचे आते हैं
लेनिनग्राद की कठिन रात में
किरोव घूमता है नगरी में
जब वह रेजीमेंट पहुँचता
इतने शांत भाव से चलता
जैसे कोई नहीं शीघ्रता
जब वह युद्धभूमि में आता
टोपी का तारा लाल दहकता
आँखें ज्वाला-कण बरसातीं
जनता के प्रति मन में करुणा
गर्व भरा उसके साहस का
लेनिनग्राद की नाविक एक चौकसी करता
देख रहा है सरिता के नियमित बहाव को
उसके चेहरे पर पढ़ता अपना किरोव है वही कहानी
जो कि जाननी उसने चाही
करके याद
अपने कैस्पियन बेड़े पर तैनात नाविकों की
जो लड़े कभी थे अस्त्राखान के मैदानों में
और वोल्गा के विस्तीर्ण ढलानों पर
किरोव देखता है उसमें
फिर वही अनिर्वचनीय आग
फिर वही वीरता भरे अंग
अँधकार से उभर सर्चलाइट आती है
उस नाविक की टोपी तभी चमक जाती है
तेज़ रोशनी में किरोव है
जिसका नाम विजय है
फटकर गिर पड़ती महराबें
घर दीवारें भूमि चूमते
लेनिनग्राद की कठिन रात में
किरोव घूमता है नगरी में
एक भयंकर सच्चा योद्धा
चुपचुप फिरता है नगरी में
बहुत रात तक कड़ी बर्फ़ पर धीरे-धीरे
जैसे थका हुआ हो किसी क़िलेबंदी के श्रम से
यहाँ नहीं अब पारी चलतीं
यहाँ नहीं आराम रहा है
नींदें ग़ायब
लोगों के दिल धड़का करते
किंतु न भय से
बूँद पसीने की दुखती पलकों पर गिरतीं
सिर के ऊपर घहराकर गोले फटते हैं
किंतु आत्मा की पुकार पर
लोग काम करते रहते हैं
भूल थकावट भय को
डर केवल पलभर रहता है
सुनो ज़रा यह
भूरे बालों वाला बूढ़ा क्या कहता है
अपने सच्चे दिल से
चाहे शोरबा में ज़्यादा पानी मिल जाए
रोटी की क़ीमत चाहे सोने-सी हो जाए
अडिग रहो ऐसे जैसे फ़ौलाद ढले हम
बनो बहादुर
इस थकान को कभी बाद में हम देखेंगे
गर्वित दुश्मन
हमें कुचलने में अब तक नाकाम रहा है
भूखा हमें मार देने की
अब उसने यह चाल चली है
लेनिनग्राद को अलग काट कर रखे रूस से
बंदी बना सभी को डाले
लेकिन नेवा के पवित्र तट
शपथ तुम्हारी
रूसी मज़दूरों को पंक्ति तोड़ते
या दुश्मन के आगे अपना शीश झुकाते
पूरी ताक़त से हथियार नए ढालेंगे
दुश्मन का घेरा तोड़ेंगे
अपने दुर्दमनीय कर्म से
ठीक कह रहे हैं वे :
हम किरोव का नाम गर्व से अपनाए
लेनिनग्राद की कठिन रात में
किरोव घूमता है नगरी में
ख़ुश होता है
उसके लोग नहीं हारे हैं
खड़े हर जगह मज़बूती से
मातृभूमि की रक्षा करते
घेरा डाल गरजती तोपें
घातक विस्फोट पास में होते
थोक भाव से गिरते गोले
घिरा धुएँ से
डगमग करता
गिरा एक घर है धड़ाम से
तभी एक लड़की अपनी टुकड़ी को लेकर
बिना शिकन लाए माथे पर
करने मदद पहुँच जाती है
परवा नहीं कि कड़ियाँ गिरतीं
या दीवारें
ईंटे धसक ज़मीं पर आतीं
बिना मृत्यु भय के फ़ुर्ती से वह चढ़ जाती
वक्त गुज़रने से पहले ही दबे हुओं को
मलबे से बाहर ले आती
यहाँ तरुणता
यहाँ हर्ष और भय है
नियति क्रुद्ध है
फिर भी अपराजेय हृदय है
लेनिनग्राद की कठिन रात में
किरोव घूमता है नगरी में
नेता और सैनिक
हाँक लगाने वाले इस सोवियत काल के
उसने देखे
हिम-आच्छादित काज़वेक पर्वतमाला पर
या अँधकार में छिपे हुए संघर्ष निरत
उसने देखी
लंबी रातें स्टेपी की
अस्त्राखान की आग भयंकर नीली-नीली
सारे पथ पर ऐसी लगती जैसे तेग मचलती
वे ख़ून ख़राबी के दिन उसने देखे
उसका मन कोमल-कठोर था
उसने कितने ही पथ जीते
उसकी थी उपलब्धि—
युद्ध पीड़ा निस्सीम गगन ख़तरे चिताएँ सब
उसका आत्म बोलशेविक था
वह महान् के महा तत्त्व का अनुरागी था
इस महान् मेहनतकश लेनिनग्राद नगर को
उसने सबसे ज़्यादा चाहा
उसका अंतिम प्यार यही था
किंतु शीघ्र ही उसका आख़िरी दिन आया
गोली एक बुला लाई जाकर मृत्यु को
यहीं मक़बरे में उसको हमने दफ़नाया
नेता मित्र पिता सबने उसकी जय-जय की
अपना काम पूर्ण मेधा से
और वीरता से
उसने संपन्न किया था
उसके केवल नाममात्र से
बाहों में प्राणों में शक्ति-स्फुरण होता
अब भी वह
प्रत्येक गली के अवरोधों तक
खाई खंदक द्वारों
और नगर-पार की सीमाओं तक
लेनिनग्राद की कठिन रात में जाता
देखा करता है रुक-रुक कर
झिलमिल करते राकेटों को
निशि के प्रथम पहर की गोलाबारी
जर्मन सेना की छिपी खंदकों
और कैंपों को
जहाँ भरी उनकी सामग्री
स्वचालित हथियारों में से
चाक़ू जैसी लपट निकलती
कवच सरीखे टैंक पड़े छितराए
क्या अपना वीरत्व छोड
घर ख़ाली कर
दुश्मन का पेट भरोगे
उसकी इच्छा पर
अपनी बेटी उसके बिस्तर पर भेजोगे
पहन स्त्रियों के लूटे फर
घातक हथियारों से सज्जित
रौंदे खेतों में से होकर
गंध तुम्हारे चूल्हे की
लेने आता है दुश्मन
सुनते ही उसकी पुकार को
तुरत हमारे लोग मार्ग अवरुद्ध बनाते
एक वृद्ध लँगड़ाता लेता है हथगोला
अकेला वह सबसे निपटेगा
मैदानों में जहाँ बर्फ़ के ढेर लगे हैं
बढ़ जाते हैं टैंक
युद्ध का जहाँ मोर्चा
एक बुर्ज से स्वर आता है मातृभूमि का
और दूसरे पर किरोव दिखलाई पड़ता
तस्कर गोलाबारी की दारुण रातों में
अधम जर्मनों के घेरे को खंडित करने
दृढ़ संकल्पी लेनिनग्राद निवासी जाते लड़ने
ऊपर लाल ध्वजा फहराती
है विजयी तोरण-सी
प्रेरित करता है
किरोव का नाम भयंकर
लेनिनग्रादी सेनाएँ आगे को बढ़तीं।
- पुस्तक : एक सौ एक सोवियत कविताएँ (पृष्ठ 121)
- रचनाकार : निकोलाई तिखोनोव
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
- संस्करण : 1975
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.