विषम अवस्था है उसके एकांत की
काव्य में पड़ा जैसे कोई तरल बिंब
क्षण भर प्रकट होता है फिर स्वयं ही में विलुप्त
एक और निषिद्ध रूप वाला प्रेमी
जोड़ लेता है घुटने पसलियों से
ताप में दग्ध झूलती है वेणी जो उसकी जंघाओं पर है
किंतु ओझल है उद्गम
केवल वह चित्रकार जानता है
जिसने पूस के पाले में उकेरी थी मंदिर की चौथाई दीवार
कि स्वयं एक भीषण अरण्य जैसी
प्रेयसी प्रणय पश्चात गंगा में करती है प्रभात स्नान
यों तो कोई नहीं देखता किस दिशा से आलिंगन लिया है उसका जल-कणिकाओं ने
केवल वट दीखता है उसके चतुर्दिक
वह भी घनघोर मेघ जैसा अब बरसा की तब बरसा
गिरे पात से भरे हुए हैं उसके अंग
कोई अनंत राग में फूलते हुए मदार जैसी तपती है जटा
जहाँ हर तिमाहे निर्जल ही पड़ा रहता है सूर्य
वहाँ से पाँव नहीं उठते
मूर्च्छा घेर लेती है काया को
तब जी होता है सामुद्रिक से मुहूर्त निकलवा कर
कह आऊँ
तुम्हारे द्वार पर इतने नदी पोखर हैं
कविता पढ़कर भी शांत नहीं होती धारा
इतना सिंदूर है देह पर
कि झुकने से लाल पड़ जाता है संपूर्ण पक्ष
तुम्हारे एकांत में अडोल हो उठती है श्वास
जैसे पाँचवी बार मृत्यु-गंध आने पर भी नहीं हिली थी पुतली
बरस के कोई भी पखवाड़े आने से जीवन नहीं छूटता
मोह छूट जाता है अपनी काया में।
- रचनाकार : ज्योति शोभा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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