वो किसी हादसे की तरह गुज़री
दोनों कंधों पर एक-एक बाज़ बैठाए,
उसका सीना हमआगोशी के दरमियान फूलता सिकुड़ता-सा
आपस में छेड़खानी करते जुड़वों को सँभाले संगे-मरमर पर,
उसके घुटने अंधे को भी नज़र आने वाली कौंध छोड़ते
उसकी टाँगें, जैसे किसी संगमरमरी गुंबद के दो खंभे,
हवा से बातें करतीं
और पाँव दो नन्हे शरीर परिंदे
उसके बाल सहरा को फ़तह करते फ़ौजी फरहरे की तरह
पीछे की जानिब फरफराते
और आँखें शिकस्त हुओं की अनदेखी करतीं
लिहाज़ा कोई नहीं देख पाया उसकी आँखें
कोई नहीं सुन पाया पाँवों तले उसके रौंदे गए
बनफ़्शे के फूलों की दास्तान
सब कुछ को दरहम-बरहम करती वो आसेबी शै
गुज़री किसी हादसे की तरह
मगर मैं बच गया
मुझे झरफ तक नहीं आई
फ़क़ इस नज़्म की नीमगुफ़्ती के।
- पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 335)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक सुरेश सलिल, कैथराइन कोहैम
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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