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पक्षी

pakshi

ईश्वर चित्रकार

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    पंख कर रहे वमन ज्वाल

    पर पक्षी उड़ता जाए

    उसकी देख उड़ान

    शिकारी लालायित है।

    संग विहग के उड़ती जाए।

    उर में उतरी कोटि कटार।

    धीरे-धीरे पंख हिले

    ज्यों समीर के निश्वासों पर

    हँसकर पुष्प खिले।

    उसके अंतस् से बहता जो

    साहस-रक्त-प्रवाह

    आगामी युग को प्रदान

    करना अनुपम आलोक।

    पावक जाल प्रबलतर शायद

    उसकी अग्नि बुझाय,

    प्रेम-ज्वाल जब धधक उठे

    तब कौन शमन कर पाय

    चपलाओं का नीड़ जिधर

    उस ओर विहग मुड़ जाए

    पंख कर रहे वमन ज्वाल

    पर पक्षी उड़ता जाए।

    अगणित पिंजरे तोड़ चुका वह

    दिवस निशा सम बीते उसका

    प्रात रात-सी उसकी

    प्रतिपल, घडी, दिवस, प्रतिमास

    ऋतुओं की जड़ता पर उसने

    अपने गीत बिखेरे

    किंतु समय के ऊसर चाहे गीत ये उग पाए

    कौन, भला, जो दहक रहे

    अंगार चुगे, खा जाएँ

    नव अरुणोदय से रंग लेकर

    धूमिल, बुझते, तारक के

    उर से लगता जाए।

    पंख कर रहे वमन ज्वाल

    पर पक्षी उड़ता जाए।

    लपट उठ रही है पखों से

    पंख झुलस झड़ जाएँ,

    छू जाते है जिनको, सत्वर

    वे तारक सड़ जाएँ।

    प्रीति-दीप्ति को सहन कर सके

    अनुपम साहस वाला,

    नित्य मरण बनता तारक का

    अरुणोदय उजियाला।

    उसके उर में उबल रहे हैं

    अगणित गीत, अगीत,

    किंतु इन्हीं गीतों से है

    अनुप्राणित उसका जीवन।

    कौन देख पाया प्रत्यक्ष को

    कौन जान पाया परोक्ष को

    अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप

    सभी को पीड़ा का वरदान।

    क्यों यह महा प्रसार

    विहग को लघुतर होता जाए।

    पंख कर रहे वमन ज्वाल

    पर पक्षी उड़ता जाए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 446)
    • रचनाकार : ईश्वर सिंह
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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