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पछुवा और पुरवइया

pachhuwa aur purawiya

अनुवाद : चमनलाल

सुरजीत पातर

सुरजीत पातर

पछुवा और पुरवइया

सुरजीत पातर

और अधिकसुरजीत पातर

    मेरे मुर्शिद, मेरे मकतब, मेरे महरम, मेरे यारो

    मैं शगुनों-भरी इस प्रभात में

    अपना मातमी संध्या-जैसा चेहरा लेकर

    गया हूँ

    क्षमा करें

    मेरे बदशगुन बोलों पर

    मेरा वश नहीं चलता

    वरना त्योहार पर मैले-से वस्त्र पहन

    कौन आता है

    आप भद्रजन हैं, निश्चिंत बैठ जाएँ

    आपकी नज़र झुक जाए

    नहीं, इतनी नौबत आएगी

    क्योंकि मुझे किसी पे कोई

    इल्ज़ाम नहीं लगाना

    सिर्फ़ इक़बाल करना है

    नए पंजाब के शगुनों-भरे आस-भरे दिन

    मेरे मनहूस दिल में

    शोक की इक लहर उठती है

    गुरु जाने

    ख़ुदा जाने

    ख़ैर हो

    मेरी रूह में शायद किसी गद्दार की रूह ही

    समाई है

    जो मेरे बदशगुन बोलों में

    हौले से फुंकारती है :

    अढ़ाई नदियों का यह पंजाब

    होगा किसी नेता के लिए पंजाब

    मैं नेता नहीं हूँ

    मेरे पंजाब ने तो बहुत देर हुई

    ख़ुदकुशी कर ली थी

    और उसके पंजों से

    कोई आयत, शब्द कोई

    लिखा मिला था इस तरह :

    मेरा क़ातिल नहीं कोई

    मेरी हत्या किसी के हाथों नहीं हुई

    मैंने आत्मघात किया है

    और मेरी मौत का मातम करने का हक़

    सिर्फ़ हवाओं को है

    पुरवइया चलती, चले पछुवा

    पुरवाई पछुवा के गले लग जब विलाप करती है

    और सीमा पर खड़ा सैनिक

    या सरहद पर खड़ा फ़ौजी

    हवा में फायर करता है

    तो वृक्षों से स्तंभित पक्षी

    आकाश में शरण ढूँढ़ते हैं

    हवा वृक्ष के आँसू पोंछती सिसकती है :

    मेरा क़ातिल कोई नहीं

    मेरी हत्या किसी के हाथों नहीं हुई

    मैंने आत्मघात किया है

    जब कभी लाहौर रेडियो से कोई गीत सुनता हूँ,

    तो मुझे लगता है

    पुरवइया पछुवा के गले लग रो रही है

    अचानक अपने हाथों पर रक्तिम दाग़ दिखते हैं

    कभी जब देश के रखवालों को आवाज़ आती

    या वतन के गाज़ियों को कूक सुनाई देती

    तो मैं नहीं जान पाता

    मैं गाज़ी हूँ या रखवाला

    भला मैं भी ये क्या क़िस्से ले बैठा

    मुबारक दिन है आओ

    नए पंजाब की दीर्घायु के लिए प्रार्थना करें

    इसकी सरहद पर झंडे झुला दें

    किसी जासूस की तरह सुन सकें जो

    क्या फुसफुसाती हैं

    पुरवइया और पछुवा जब

    गले लग रोती हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कभी नहीं सोचा था (पृष्ठ 41)
    • रचनाकार : सुरजीत पातर
    • प्रकाशन : सारांश प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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