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न्यायदर्श

nyaydarsh

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    काम एक से एक हुए जिनके महान हैं,

    अब भी जिसके यशस्तंभ दंडायमान हैं।

    वीरसिंह का नाम जानता कौन नहीं है?

    उन्हें महाबल-धाम मानता कौन नहीं है?

    कहते हैं, बस एक पुत्र था पहले उनके,

    होते थे सब भीत नाम ही जिसका सुनके।

    उनके कुल में जन्म लिया था उसने ऐसे—

    रत्नाकर से हुआ हालहल प्रकटित जैसे॥

    कुल-कलंक वह राजपुत्र अति अविचारी था,

    निष्ठुरता की मूर्ति भयंकर बलधारी था।

    उसके कारण सदा प्रजा शंकित थी सारी,

    रक्षक भक्षक बने समय की है बलिहारी॥

    मृग, शूकर, विहगादि मार कर बड़े चाव से,

    साथ लिए दो चार श्वान स्वच्छंद भाव से।

    एक बार जब लौट रहा था वह शिकार से,

    हार रहा संध्या-प्रकाश था अंधकार से॥

    जाते हुए दिनेश-ओर युग लोचन लाए,

    संध्या करता हुआ यथाविधि ध्यान लगाए।

    अर्घ्य-पात्र जल-पूर्ण हाथ में लिए सुहाया,

    पथ में कोई पथिक दृष्टि में उसके आया॥

    जाकर उसके निकट राजसुत उससे बोला,

    रख मानों नर-रूप पाप ने मुख को खोला—

    “अर्घ्य-दान-मिस अरे! धूल में जल मिला दे,

    थके हमारे श्वान इसे तू उन्हें पिला दे॥”

    बेचारा वह पथिक राज-सुत को क्या जाने,

    जाने भी, पर कौन आर्य यह कहना माने?

    दोनों भौंहें तान पथिक ने नयन तरेरे,

    पर तुरंत रिस-रोक सूर्य-सम्मुख दृग फेरे॥

    एक क्षुद्र जन राजपुत्र पर करे रोष यों,

    हो सकता है कभी क्षमा के योग्य दोष यों!

    “नीर नहीं तो रक्त पिला रे खल!” यों कह कर,

    राजपुत्र ने छोड़ दिए वे श्वान पथिक पर!!

    महा भयंकर और तीक्ष्णतर डाढ़ों वाले,

    दौड़े वे तत्काल पथिक पर काले-काले।

    इधर-उधर से उसे पकड़ कर काटी काया,

    ज़रा देर में चीर-फाड़ कर मार गिराया!

    वीरसिंह को इस अनर्थ की ख़बर लगी जब,

    उनके मन में महादु:ख की ज्वाल जगी तब।

    पीछे सुत पर घोर अनादर उपजा उर में,

    किंतु छिपा कर भाव गए वे अंत:पुर में॥

    उनको आया देख उठ आदर से रानी,

    कर कुछ प्रेमालाप भूप बोले मृदु वाणी।

    “निष्ठुरता से कहीं किसी को कोई मारे,

    तो उसको क्या दंड ध्यान में जँचे तुम्हारे?”

    तब सँभालती ही शीश-पट परम सयानी,

    नम्र भाव-परिपूर्ण विनय युत बोली रानी—

    “मुझ अबला में ज्ञान कहाँ से इतना आवे,

    पर जो जैसा करे क्यों वैसा ही पावे॥”

    सुन रानी के वचन हुआ संतोष नृपति को,

    और उन्होंने बहुत सराहा उसकी मति को।

    शोभित कर फिर शीघ्र उन्होंने न्यायालय को,

    वैसा ही दृढ़ दंड सुनाया आत्म-तनय को!

    न्यायप्रियता देख भूप की विस्मित होकर,

    भूल गए सब राजपुत्र का कर्म कठिनतर।

    गद्गद् होकर सभ्य जनों ने विनय सुनाया,

    क्षमा-दान के लिए उन्हें बहु विध समझाया॥

    वीरसिंह ने बात किसी की एक मानी,

    फिर वह पलटी नहीं कही मन में जो वाणी—

    “न्याय-समय संबंध, मुझे है ध्यान तेरा,

    मैं किसी का और कोई संप्रति मेरा॥”

    अपने सम्मुख पुन: उन्होंने सुत के तनु पर,

    लेप कराया दही और चीनी का सत्वर।

    जिन हाथों में रत्न जड़े दो कड़े पड़े थे,

    बंधन उनके लोह-शृंखला-युक्त कड़े थे॥

    राज-पुत्र की दशा की गई आख़िर वैसी,

    उसके द्वारा हुई पथिक जन की थी जैसी!

    सर्वनाश हो, धीर न्याय को त्याग सकते,

    पक्षपात, अविचार उनके पास फटकते॥

    पर निज सुत न्यायार्थ जिन्होंने मारा ऐसे,

    रखता नि:संतान उन्हें परमेश्वर कैसे?

    जन्मे सुत हरदौल-सदृश उनके सुधाम में,

    पूजित जो हो रहे आज भी ग्राम-ग्राम में॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 175)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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