एक
भोर के भयानक सपने में क़ैद हैं
दुख की गाथाएँ, कारण-निवारण
पुतलियों को जकड़े कीचड़ का ब्रह्मपाश
सिर दर्द से और दिल गर्द से पटा जा रहा है
दो
ज्ञान-गुदरी गोबरैली
अमलगम
सत्य-सत्ता जोड़ता हूँ
और भत्ता जोड़ता हूँ
तीन
कॉरपोरेटी समाजी ज़िम्मेवारी के नृत्यांगन में
वर्दीली आत्मा चमकती चौंधियाती काव्य द्युति में
‘सार्वजनिक-निजी साझा’ काव्य-भाषा जब कहती है प्रेम
उसका मतलब निजी पक्ष में ख़ास तरह की हत्या होता है
चार
रंगसाज़ों की उबलती कढ़ाई से बने श्रम से
रँगा मैंने नीचताओं का पटंबर चमचमाता
उन लोगों से दूर कहीं मैंने खोली है वह दुकान
प्रतिबद्धता वग़ैरह जहाँ बिका करते हैं सस्ते-मद्दे
पाँच
मध्यवर्ग की चकमक-चकमक दलदल में
प्रमुदित मन छप-छप-छप करता
ज्ञानी-विज्ञानी सर्वज्ञालोचक, मैं
टेढ़ा-ऐंठा जाता हूँ मन रंजन करने
जनसंहारों, विभीषिका के गाँव
दिल की आँखों में कोंच सनसनी की अंगुलियाँ
रो लेता ख़ुश हो लेता अंडे सेता हूँ चुभलाता हूँ
अपने सड़ियल संवेदन का हाड़
छह
फिर बैठे-बैठे प्रमुदित मन नौकरी किए जाता हूँ
फिर उसी नौकरी की टुच्ची महदाकांक्षा का सुआ
बेधता जन-संघर्षों के हिरदय में
आख़िर राजा के चरणों में प्रणति प्राप्त करता हूँ
वहीं से सुविधाओं की नदी निकलती है
सात
फिर बहस अभागी जिह्वाग्रों पर
बंधक, हम मध्यवर्ग के मध्यवर्ग को
मध्यवर्ग के द्वारा मध्यम मार्ग बताते
गरियाते-समझाते-दुलराते आते
लाते भर-भर संतुष्टि घरों में
रोज़ रात सोने से पहले ख़ुश
यह पराक्रमी कर्कट-गाथा
घर की आदिम ग़ुलाम के कानों में भरता हूँ
आठ
इतिहास की घायल ज़ुबानों
की कथा कह संक्षेप में
अपनी व्यथा को बरतरी देता
नम्रता की खाल ओढ़े बाघ-सा
चुपचाप पीछा कर रहा हूँ
अकादमियों-संस्थाओं-पुरस्कारों का
झपट्टे का समय निश्चित
नौ
हज़ारों ख़्वाहिशों में
बजबजाता मन उफनता
हृदय की नालियों में बाढ़
वर्जनाएँ एक दूजे से गले लग
भर रहीं मस्तिष्क
सत्ता के अनोखे चतुर चारण का
निजी आदर्श चमका दूर तक
दस
पोथियाँ पढ़ ज्ञान बकता
आत्म के परितोष में डूबा हुआ
बंजर भाव-धरती चाल बिच्छू-सी
हरबा उठाए अपने से कमज़ोरों पर
उसी सत्ता से प्रेम युद्ध उसी से
उसके सब गुण वांछित लांछित उससे
सत्ता को एकाग्र समर्पित
यह सब वह सब
सब कुछ सब कुछ
ग्यारह
साँझ होने को हुई है
एकता में भी दुई है
- रचनाकार : मृत्युंजय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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