रात दिन को हसरत से देखती है
raat din ko hasrat se dekhti hai
रात दिन को हसरत से देखती
अगर देख सकती
कबूतर गिलहरी को प्यार करते हैं
और समुद्र को नदियाँ अच्छी लगती है
मैंने कभी-कभी ख़ुद को भोला लगता हूँ
रास्तों की लंबाई बोर होने से बचाती है
और थकान रात की ऊब से छुपा कर रखती है
अख़बारों मे आई हुई ख़बरें बड़े दरवाज़े वाले
घर से होकर निकलती है
बहुत से लोग बताते हैं कि ऐसा उन्होंने देखा है
बग़ावत की कमी का कारण कई बार
ख़ून में लोहे का कम होना लगता है
और मैं सोचता हूँ कि यह नमक किसका है
जब भी घावों में टीस उठती है
तो कोई न कोई याद जोड़ कर वक़्त काटना अच्छा लगता है
शहर की ओर आते हुए किसानों की
एकजुट पदचाप नींद में मेरा पीछा करती है
और मुझे खेत तालाबों में बदलते दिखते हैं
कई महीनों से फ़र्क़ नहीं पता चलता है कि
ख़बर पढ़ी थी या कोई सपना देखा था।
नींद के भीतर और घर के बाहर दोनों जगह
डरी-डरी जाती हैं क़स्बाई लड़कियाँ
और अपना हक़ माँगते हुए उनकी काँपती आवाज़ के पीछे
खड़ी मेरी आवाज़ पर पीछे से किसी विलुप्त गिद्ध की आत्मा
रोज़ अपनी चोंच की धार पैनी करके लौट जाती है
दोस्त जानना चाहता है मैं किस बारे मे बात कर रहा हूँ
और अक्सर इसका जवाब देने की बजाय मैं घर लौट आता हूँ
मुझे यह भी याद नहीं रहता यह बात किस दोस्त ने पूछी है
कभी-कभी जवाब मिल जाता है तो दोस्त ग़ायब हो जाता है
उसकी माँ बताती है कि उसे आटे की मिल में काम मिल गया है
और अब उसे जवाब की ज़रूरत नहीं है
उसके घर शाम की रोटी का बंदोबस्त हो गया है
दिन लंबे होने लगते हैं तो बेरोज़गारों को सबसे पहले पता चलता है।
देश की बिगड़ती हालत पर सभा बुलाकर बैठे हुए बंदर
चुपचाप बैठे हुए हैं
और मुझे बस इतना पता है कि
रात दिन को हसरत से देखती
अगर देख सकती
कबूतर गिलहरी को प्यार करते हैं
और समुद्र को नदियाँ अच्छी लगती है।
- रचनाकार : सारुल बागला
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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