आज के दिन से ही शुरू करता हूँ।
दिन मात्र कहने लायक—
हथेली में यह ऐसा दिन है
न धूप है, न चाँद, न संध्या
कहीं नहीं गया मैं
सब खड़े हैं अभिवादन के लिए
इसको दिन कह देने से हो जाएगा!
छत में लाल धूप का टीका
सुलाकर ढेर सारे पिस्सू बिछावन में
धूप थक जाती है, अब नहीं निकलेगी कभी
हम धूप का अभिवादन न कर पाएँगे कभी भी
संक्रांति / खटमल और पिस्सू का दाग़
बूचड़ का कुंदा
ज़रूर आज से ही...
आज ही ऐसा दिन है
धूप पिघलकर छलछलाती
कपोलों से पसीना टपकता हुआ
आकाश फिसला हुआ है हथेली से स्खलित होकर
कथित पगडंडियाँ बिगड़ी हुईं
घुटना, तलवे और हथेलियाँ विदीर्ण टपकती हुई
रक्त पानी, पानी का बहाव
प्यास हृदय सूखकर
फेफड़े में झुर्रियाँ पड़ी हुईं
जीर्ण हथेली खल्वाट सिर
दिन/बालू, आदमी/बालू, समय/बालू
पसीना/बालू, बालू/बालू, बालू/बालू
ज़रूर आज का ही दिन है
हृदय, सिर, हथेली मरी हुई,
मैं ऊपर से नीचे तक मरा हुआ
लुढ़कता सड़क पर दारू पीकर
अशौच बारना पड़ेगा।
अपने-अपने प्रेत, किरिया वेदी पर सिर घटक फोड़ने होंगे ख़ुद ही
आज का ही दिन है
आज से ही शुरू करता हूँ।
- पुस्तक : नेपाली कविताएँ (पृष्ठ 67)
- संपादक : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
- रचनाकार : मोहन घिमिरे
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1982
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