एक
स्वप्न मेरा संस्कार था
मैंने जागते हुए स्वप्न देखे
यह रात का अपमान था
और नींद पर लानत
रात ने श्रापा मुझे
और नींद ने धिक्कार दिया
मैं जागते हुए बरसात की रातों को रोता रहा
लोग चिंतित थे
कि पिछवाड़े बहती नदी दिन-ब-दिन खारी क्यों होती जा रही है
सातों समंदर सप्त प्रेमियों के तप्त अश्रु हैं
जो उनकी आत्मा के गड्ढों में एकत्र हुआ
बरसात की रोती रातों में
तुम्हारा स्पर्श हथेलियों पर
भूखे भिखारी की तरह हाय-हाय करता रहा
और तुम्हारे घर से दस क़दम की दूरी पर
पान की दुकान में एक घायल इंतज़ार तिल-तिल कर मरता रहा
ये बिखरे तंतुओं की तरह बिखरी बातें
रात भर जोड़ता रहता हूँ
मेरे भीतर उग आए पहाड़ पर
जागते हुए पत्थर तोड़ता रहता हूँ
जिस रात मैं पत्थर से पानी हो सकूँगा
बस उसी रात फिर से सो सकूँगा
दो
जब उँगलियों पर गिनते हुए मैं आठवें पोर पर पहुँचा
रात के रोओं में आग भभक उठी
तुम्हारे बिखरे और ढीले वाक्यों से झरे अक्षरों ने एक शब्द रचा
जिसका अर्थ ईसा मसीह के सिर पर ठोकी गई कील-सा था
मैंने सलीक़े से अपनी सलीब उठाई
और नींद ने आख़िरी साँस ली
सज़ा सुनने के बाद अपराधी ने अपने ख़ाली जेब में हाथ डाल कर
ख़ुद को अपने खालीपन में भर लिया
जो काम सृष्टि के पहले दिन से टालता रहा मैं
उस रात आख़िर कर लिया
आख़िरी बार जब पूछी गई मेरी इच्छा
तब मेरे साथ उस स्त्री ने भी कहा
हमें रेखाओं को अनदेखा करने दिया जाए
कोई न बचाए हमें
हमें जीवन की तलाश में मरने दिया जाए
यह बात जो कविता में दर्ज हुई है
मेरे किसी जागृत स्वप्न से छिटक कर गिर गई है
तीन
तुम हिचकी की तरह आई थीं
और किसी दर्द की तरह गईं
जाने से कहाँ कोई जाता है
उसका कुछ न कुछ रह ही जाता है
जैसे मेरी दादी की छड़ी रह गई
और तुम्हारी अनकही बात
खेत में बीज रोपते वक़्त
या किसी ढलान से उतरते हुए
तुम्हारी बहुत याद आती है
मेरा हमशक्ल दीपक के नीचे
अँधेरे की शक्ल में रहता है
ईश्वर ज़रूर हरी घास के मैदान में बैठा
कोई उदास निठल्ला आदमी है
वह जब-जब घास नोचता है
जिगर तक जाने वाली मेरी नसों में खिंचाव उठता है
किसी दिन जब मैं हृदयाघात से मरूँगा जान लेना
ईश्वर की नौकरी लग गई है
और उसने अपने आस-पास की सारी घास नोच दी है
रात के तीन बजे जब रात जा चुकी है
दिन आ रहा है
मैं बीच में खड़ा हूँ
किसी दुर्घटना के इंतज़ार में
कि नींद की कोई गाड़ी
एक सौ पचास किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से आए
और मुझसे टकरा जाए
मैं जिऊँ या मरूँ
कम-बख़्त मुझे नींद तो आए
चार
जैसे अभी मेरे पास कहने को बहुत कुछ है
और बोलने को कुछ नहीं
लिखना इस समय हो ही नहीं पाएगा
क़साई की दुकान में सूखे हुए ख़ून
और मेरे आँसुओं में कोई रिश्ता ज़रूर है
पहाड़ की जड़ों में मेरे किसी पूर्वज का दुख गड़ा है
और मेरे पैरों में तुम्हारी कोई बात
मैं जिस जगह हूँ वहाँ से बढ़ने की सोचता हूँ
और रात भर जागता हूँ
फिर यह कविता सरल हो रही है
इतनी जितना कि यह वाक्य :
‘मुझे उसकी याद आती है’
जैसे :
‘जीवन दुःख का दूसरा नाम है’
जैसे :
‘मुझे नींद नहीं आती’
जैसे
‘एक दिन सबको मर जाना है’
बादलों से बरसता पानी, पानी नहीं पाती है
जिसे बाँचता हूँ मैं अपनी त्वचा से
ये किसी मजबूर आदमी के छत से कूद जाने जैसा कुछ है
नेलकटर से नाख़ून की जगह जिगर कुतरता मैं
रात से बात करता रहता हूँ
खीझ कर चाँद पर फेंकता हूँ रस्सी
और लटक जाता हूँ हर रात
कागज़ पर नींद के मरने, रात के गिरने
और ख़ुद के लटकने की रपट लिखता हूँ
कविता के आस-पास की कोई चीज़ मेरे हाथ में होती है
मेरी नींद रात के टीले पर रात भर रोती है
पाँच
रात वह पुड़िया है
जिसमें ज़ंग लगे पुराने ब्लेड के टुकड़े लपेटे गए हैं
जहाँ कटी उँगली का दर्द क़ैद है
जहाँ घाव में डालने के लिए ज़रूरी नमक सहेजा गया है
नींद वह अभागी भिखारन है
जो दिन भर भीख माँग कर रात को भूखी सो जाती है
नींद वह बच्ची है जो हर बार मेले में खो जाती है
और मैं वह बात हूँ
जो पूरी होने से पहले काट दी जाती है
मैं वह आँख हूँ
जो काँच की किरचों से पाट दी जाती है
छह
एक बेचैन पागल की टूटी चप्पल
एक अनाम कवि का मटमैला झोला
एक प्रेमी की अनकही बात
एक आवारा लड़की की अँगड़ाई
एक सुहागन की रख कर भूली हुई कोई चीज़
एक बूढ़े के कंठ से फूटती मौत की मनुहार
एक माँ की पनीली आँखें
और एक उजाड़ मंदिर की भग्न देवी प्रतिमा
मेरी रातों में काँटे बिछाती फिरती है
मेरी नींदें इन्हीं से टकरा कर गिरती हैं
सात
मैंने सुना है लगातार जागने से आदमी पागल हो जाता है
सुना यह भी है कि पागल आदमी लगातार जागता रहता है
और बहुत याद करता हूँ तो यह भी याद आता है
कि तुमने एक बार कहा था
जीने के लिए पागलपन ज़रूरी है
और पागलपन के लिए जागना
आठ
तुम्हारी याद किसी भेड़िए की तरह
उलझन की झाड़ियों से कूद कर वार करती है जिगर पर
और मैं रिसते हुए लहू की लकीर बनाते हुए
रेंग कर नींद तक पहुँचने की कोशिश करता हूँ
पीछे-पीछे तुम्हारी याद मेरे पस्त होने के इंतज़ार में
लहू की लीक पर, ख़ून सूँघते हुए मुझ तक पहुँचती है
और नींद तक पहुँचने से पहले ही मेरा शिकार कर लेती है
आँखों से भाप की तरह उठती रहती है कराह
और आँखों के नीचे स्याही-सी जमा होती रहती है मेरी पीड़ा
देखने वाले देखते हैं और पूछते हैं :
‘कल फिर तुम सारी रात नहीं सोए न?’
नौ
तुम पूरे चाँद की तरह हो
मैं आधी रात की तरह हूँ
तुम पूरे उपन्यास की तरह हो
मैं अधूरी बात की तरह हूँ
आधी रात में उभरता है पूरा चाँद
एक अधूरी बात पर टिका होता है
पूरा उपन्यास
क्या यह बात मेरे लिए कम है
कि तुम मेरी नींव में हो
और मैं तुम्हारी नींदों में
- रचनाकार : अनुराग अनंत
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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