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नज़्र-ए-योगेश प्रवीन नज़्र-ए-लखनऊ

nazr e yogesh prween nazr e lucknow

हिमांशु बाजपेयी

हिमांशु बाजपेयी

नज़्र-ए-योगेश प्रवीन नज़्र-ए-लखनऊ

हिमांशु बाजपेयी

और अधिकहिमांशु बाजपेयी

    लखनऊ मेरे वतन! ये तुझको आख़िर क्या हुआ

    तेरा चेहरा दिख रहा है दर्द में डूबा हुआ

    शहरे दिल-आवेज़ तेरी ये उदासी किसलिए?

    ज़र्द रंगत किसलिए ये बदहवासी किसलिए?

    यूँ भला पागल हुई फिरती है तेरी शाम क्यों?

    छिन के आख़िर रह गया है सब्र क्यों, आराम क्यों?

    बोल! वहशी हो गए तेरे सलीक़ामंद क्यों?

    ग़फ़लतों में खो दिया 'योगेश'-सा फ़र्ज़ंद क्यों?

    तेरे कूचों में भला ये हू का आलम किसलिए?

    जानेमन मुझको बता तो दे कि ये ग़म किसलिए?

    कौन है जिसने तेरी अज़मत को आख़िर कम किया?

    माथे को बख़्शी शिकन और आँखों को पुरनम किया?

    जो भी हो, वो जाएगा... जाएगा आख़िर एक दिन!

    अपना दिन दिलनशीं! आएगा आख़िर एक दिन

    लखनऊ! तुझ पर बहा-ए-नौ दुबारा आएगी

    बारिशें होंगी मुहब्बत की, घटा फिर छाएगी

    मैं दुआ गो हूँ कि फूल उम्मीद के फिर से खिलें

    तेरी गलियों में फ़रिश्तों के पते फिर से मिलें

    स्रोत :
    • रचनाकार : हिमांशु बाजपेयी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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