नरक के हरे उजाले में बहती हैं
narak ke hare ujale mein bahti hain
दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
dilip Purushottam chitre
नरक के हरे उजाले में बहती हैं
narak ke hare ujale mein bahti hain
dilip Purushottam chitre
दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
और अधिकदिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
नरक के हरे रंग उजाले में और
बरसात की रात वाले शहर में
बहती हैं मेरी आँखें।
बिजली में पूरी तरह भीगे हुए वस्तुशिल्प के पिशाच
वातावरण के लहरदार लैंस में क्रीड़ा करते हैं।
मेरे शरीर पर प्रकाश का एक बिंदु उगता है।
और मेरा हृदय धड़कने लगता है
अँधेरे में ढूँढ़ता हूँ मैं ख़ुद की पलकें
और मेरा अपना शरीर ही अजनबी बन जाता है।
शून्य की फिरकनी से अँधेरे की कोढ़ उठती है।
मेरे तन में,
और मेरी सफ़ेद विशृंखल हड्डियाँ उसमें धोई जाती हैं
और फिर, बुझी हुई तीलियों की तरह
वे रास्तों पर खो जाती हैं।
किसी आत्महत्या के समाचार की तरह
मैं फैलता हूँ
और आकाश से शीर्षक बरसते हैं।
- पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 68)
- रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1965
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