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पहाड़ों के जलते शरीर

pahaDon ke jalte sharir

वंशी माहेश्वरी

वंशी माहेश्वरी

पहाड़ों के जलते शरीर

वंशी माहेश्वरी

और अधिकवंशी माहेश्वरी

    डूबते सूर्य की अंतिम चमक के साथ

    तुम्हारी स्वस्तिक शाम

    मेरे अप्रत्याशित आकाश में

    दर्द के मेहराब बनाती है

    और मैं तुम्हारे नाम पर

    अपना विस्मृत नाम लिखते

    टूटे दर्पण के घाव में

    जलती तीली के ऊपर

    गुलाब को गिरते देखता हूँ

    तब मेरी आँखों में

    तुम्हारी

    तितली गंध उड़ती रहती है।

    लगातार

    मेरी खिड़की के सीखचों को

    ऋतु दाँतों से काटती है

    और मैं एकांत आग को

    धमनियों में फैलाकर

    दूर पहाड़ों के जलते शरीर में

    जलप्रपात गिरते देखता हूँ।

    मेरी चेतना

    धनुष की पीठ पर

    ऋतुओं के संस्कार लिए

    तुम्हारी हिरन-आदतों के भटके प्रसंग में

    प्रत्यंचा से उतरती है

    बराबर मैं

    तुम्हारे संगीत शरीर का ताबीज़

    अपनी बाँहों में बाँधकर

    सितार कला सीखना चाहता हूँ

    और तुम्हारी लय-त्वचा के भीतर

    अपनी संवेदना की थकान

    मिटाना चाहता हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वंशी माहेश्वरी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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