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मेरी कल्पना में तुम

meri kalpana mein tum

लवली गोस्वामी

लवली गोस्वामी

मेरी कल्पना में तुम

लवली गोस्वामी

और अधिकलवली गोस्वामी

    थकान की पृथ्वी का बोझ पलकों पर उठाए

    पुतलियाँ अतल अंधकार में डूब जाना चाहती हैं

    पर देह एक अंतहीन सुगबुगाहट के साथ जागना चाहती है

    बारिश के बाद हरियाती पीली फूस जैसे सर उठाकर

    दरदरी मिट्टी के कण स्नेह से झटक देती है

    ठीक वैसे ही रोम-रोम कौतुक से उचक कर तुम्हें देखता है

    आत्मा की आँखें त्वचा पर दस्तक देती हैं

    शताक्षी की देह में उगी पलकों की तरह

    प्रत्येक रोमकूप में आँखे उगी हैं

    अवश देह रोओं की लहलहाती फ़सल बीच

    तुम्हारी उपस्थिति बो रही है

    स्मृतियों के तमाम हरकारे कानों में धीरे से फुसफुसाते हैं

    तुम देह का कोलाहल नहीं हो, कलरव हो

    तुम मन की प्रतीक्षा नहीं हो, संभव हो

    अवसाद के नर्क के सातवें तले में

    तुम्हारे मन के प्रवेश-कपाट खुलते हैं

    देहरी से आते धर्मग्रंथों के उजाले के विरुद्ध सर झुकाए तुम

    देवदूत गैब्रियल की शक्ल लिए दिखाई देते हो

    कुँवारी मैरी तक ईश्वर का संदेश पहुँचाने के एवज में तुम पर

    धर्माधिकारियों द्वारा पवित्रता नाशने का अभियोग लगाया गया है

    बतौर सज़ा तुम्हारे पंख नुचवा लिए गए हैं

    पंखों की लहूलुहान कतरने लेकर तुम

    सबसे ऊँचे पहाड़ की चोटी में वहाँ चढ़ जाते हो

    जहाँ से निर्बल असहाय पक्षी आत्महत्या करते हैं

    दुखी मन से शेष बचे सफ़ेद पंख नोचकर

    तुम उन्हें पहाड़ से नीचे उछाल देते हो

    वे पंख नभ की आँखों से झरने वाले पानी के बादल बन जाते हैं

    हर वर्षा ऋतु सृष्टि तुम्हारी पीड़ा का शोक मनाती है

    अंधकार अब घटित हो रहा है

    पलकें अब स्वप्नों का दृश्य-पटल हैं

    मेरी कल्पना में तुम पद्मासन लगाए सिद्धार्थ में तब्दील गए हो

    इस दृश्य में तुम बोध-प्राप्ति के ठीक पहले के बुद्ध हो

    मैं तुम्हारी गोद में पड़ी अर्धविकसित अंडे में बदल गई हूँ

    तुम्हारी देह की ऊष्मा से पोषण पाकर

    अपने प्रसव की आश्वस्ति में नरमी से मुस्कुराती मैं

    अपनी कोशिकाओं को निर्मित होता देखती हूँ

    उठकर जाने की बाध्यता से डरकर तुम

    मेरे सकुशल जन्म तक बोध-प्राप्ति की अवधि बढ़ाते जाते हो

    मैं मुलमुलाती अधखुली पलकों से देखती हूँ

    तुम सफ़ेद रौशनी की तरह दिखते हो

    अर्धविकसित धुँधले मन से सोचती हूँ

    तुम दुःख के कई प्रतीकों में ढल जाते हो

    मैं देखती हूँ हर प्रतीक्षा दरअसल एक अभ्यास है

    अभिसार की प्रतीक्षा प्रेम का अभ्यास है

    प्रसव की प्रतीक्षा मातृत्व का अभ्यास है

    बुद्धत्व की प्रतीक्षा मोहबद्धता का अभ्यास है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : लवली गोस्वामी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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