कालिदास के अनन्य प्रेमी,
कवि-हृदय,
मैत्रीमय
श्री क़िस्मत
के लिए
चकई री चलि चरन सरोवर जहाँ न प्रेम बियोग।
जहँ भ्रम निसा होति नहिं कबहूँ सोई सायर सुख जोग॥
— सूरदास
एक
मछलियों से महकती—
झींगुरों की रागिनी से सजी पूनम के ओस-भीगे बालों को झटकती भादों की
यह ज़रख़ेज़ रात
यों लगता है कि दियरा में गभाय हुए धान से देखते ही फूटकर निकल आएगा बाल
मद्धम पड़ने लगा है इस ख़राबे में शाम की दुल्हन का अंगराग
अभी देर है—
निशीथ को शुरू करने में अभिसार।
दिन भर डूबने-उपराने के बाद पुरवा के झोंकों से झूल रहा है,
बबूल-डाल से टँगा मछेरों का जाल।
थरिया भर भात के ऊपर केकड़े का शोरबा और डोका-गोश्त के साथ
कदंब की चटनी के स्वाद को घुलाता,
मच्छरों के दंश से बचने को गमछे को इधर-उधर घुमाता
नशीली कैफ़ियत में मचान पर लेटा है मल्लाह।
बारी पर बाँस के चिलमन की रोक से कूदती मछलियों की देर से हो रही है छू-छपाक
नहर से होते चवर के पानी को नदी में गिरते सुनते सो गया है,
पेठिया से हरान हो लौटा माछ का पैकार
शायद उसके स्वप्न-घान में भी भर रही हों कहीं—
कोतरा, पोठिया, चेपुआ, रोहू, नैनी, भकुरा या फिर गरई, सिंघी, गईंचा…
गेहुँअन की तरह फन लहराती नारायणी—
जल-सतह पर हिलती चाँदनी
चाहता हूँ चुल्लू में भर लूँ,
पर अफ़सोस एक क़तरा भी उँगलियों के बीच कहीं टिकता नहीं।
उस्ताद ठीक कहते हैं : आलम किसू हकीम का बाँधा तिलिस्म है1
देखने में नूर की चादर—जब छूता हूँ—वही रेत, वही पानी
ऐसे ही तुम्हें भर लेना चाहा—
तुम नदी थीं,
मैं मेघदूत…
मुझे पहुँचाना था समाद विरही यक्ष का
कब तक बैठता प्रमाद में तुम्हारे किनारे।
दो
एक भगत की मटमैली बयाज़ में नज़र बचाते पढ़ा था—बचपन में—
पीढ़ियों से आज़माई उन गालियों को
जिन्हें बुदबुदाते,
नीम का झाड़ पीटते,
ओझा आज भी करते हैं सँपकट्टी का इलाज :
बिष हरऽऽ-हरऽऽ!
बिष हरऽऽ-हरऽऽ!!
बिष हरऽऽ-हरऽऽ!!!
जहालत थी या निश्छल यक़ीन से पैदा हुई पीढ़ियों की कोई दिमाग़ी मुश्किल
पता नहीं क्यों सर्पदंश का समाचार देने वाले पर भी,
धीरे-धीरे होने लगता था ज़हर का असर
वह भी गिरने लगता था स्याह मुख लिए पछाड़ खा
चार जन उसका भी करने लगते थे उपचार—
पीठ पर कांसे की थाली चिपकाते बालू छींटते अस्तव्यस्त…
पानी पर भागने वाले—मूर्खता की हद तक—मासूम लोक का वासी—मैं
लड़कपन में बन बैठा क़ासिद यक्ष का
अब सफ़र है कि तवील से तवीलतर हुआ जा रहा
और ज़हर है कि सरापा स्याह से स्याहतर किए जा रहा
आने ही वाली है देवोत्त्थान एकादशी
पता नहीं कब पहुँचूँगा अलकापुरी और कब लौटूँगा रामगिरि
यक्ष ने कहा था कैसे भी पहुँच जाना आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक
इससे पूर्व सावन के उच्छृंखल बादल अपनी क्रीड़ा से
उस विरह-कातर-क्षीणकाया-योगिनी-मेरी-प्रिया को
और अधिक वियोग से न कहीं लगें हहराने।
तुम हो भुलक्कड़,
आवारगी में कुछ ज़्यादा ही फक्कड़
गुज़ारी है उम्र तुमने यहाँ से वहाँ दर-ब-दर फिरते
बिना किसी साये-सहारे
तुम समझते हो अकेले होने का दुःख
बस अपनी याद की थाह लेना,
क्योंकि विस्मरण प्रकृति है तुम्हारी
इस बार बाज़ आना
बे-याद
कहीं राह में भटक
किसी चित्रकार के चित्र में
अटक मत जाना।
तीन
आषाढ़ का वह उल्लसित प्रथम दिवस
और यह बे-नियाज़ रात
जाने कितनी नदियों में आया उफान
कितने ही ताल-तलइयों में उपटा पानी
कितने रेगज़ार थे जिन्होंने सोखा मेरा जल,
कर दिया मुझे नीम-जान
लेकिन अब सब ध्यानस्थ!
शांत!
तालाब का पुरइन पात,
चकवा-चकई की चहकार
हुए हैं तीन ही मास,
लेकिन लग रहा है युगों से इस अभिज्ञान को भीतर छुपाए
सारहीन संसार में अपने होने का सार ढूँढ़ता
ख़ुद को नफ़स-नफ़स मथता
पथहीन
पाथेयहीन भटक रहा
सफ़र में नज़र के चमचमाते परदे पर
हैरती हुए हैं इतने रंग कि अब याद करता हूँ जब भी कोई चेहरा
तब नुमायाँ होती है रंगों से सजी अल्पना
तय नहीं कर पाता कौन साथ है, कौन विलग
यह उन संगतों के असर का तरन्नुम ही है
कि राह पर अपनी धुन में बढ़ता जा रहा गाता
एक झपकी लगी और जगाए बग़ैर गुज़र गया कारवाँ
डूबती बीनाई से अब देख रहा फ़ासलों का फ़ासला
जैसे मौत के बाद आदमी छूट जाता है ज़िंदगी से,
वैसे ही छूट गया हूँ सबसे
बोलने को बकार, सुनने को कान नहीं
सब-कुछ-सब-तरफ़-अनकहा-अनसुना।
चार
अनवरत विचारता :
मेघ का ख़याल हूँ
या मेघ मेरी कल्पना…
ख़ुद को काटता हूँ चिकोटी
इस यक़ीन को झुठलाता कि नहीं हूँ वह बेहिस मेघ—
कालिदास की कल्पना!
मैं आदमज़ाद ढाब का गँवार
दुआरे पर इंतज़ार करती माँ के नसीब का बेटा
लेकिन हतभाग्य!
ख़ुद से हारा अपनी रात से बिछड़ा तारा
बादल के बैलों को सँभालता
पैना भाँजते देता ललकारा
ऊब के खेत को दुःख के हल से जोत,
आँसुओं से सींचता—
भावना की फ़स्ल…
बाहर से लहलहाता,
अंदर से सूखता,
नष्ट होता
…इतनी शक्ति नहीं बची
कि भरूँ फिर से जल
कहूँ कुछ किसी नदी या झील से
अब तो सब तरफ़ सूखा,
सब तरफ़ सहरा,
सब तरफ़ तड़प,
सब तरफ़ प्यास,
कहाँ बरसूँ,
किधर जाऊँ
कुछ
नहीं
सूझता!
पाँच
बादलों के अपने दुःख हैं,
नदियों के अपने
पेड़ आदिम गवाह हैं सभ्यता के षड्यंत्र के—लेकिन चुप
पशु-पक्षी-हवा-पानी सब कुछ कह रहे हैं…
लेकिन मनुष्य—
जो उसके सबसे क़रीब उसे ही सुनना नहीं चाहता
गुनना नहीं चाहता।
छह
जहाँ हूँ वहाँ रहना नहीं चाहता
कर रहा हूँ वह करना नहीं चाहता
जी रहा हूँ वैसे जैसे जीना नहीं चाहता
मरना नहीं चाहता
चाहता हूँ हर शिल्प हर पैकर को तोड़ना
चाहता हूँ लौटना
संकटग्रस्त जीवन को लेकर—
एक ऊहापोह…
नाव रहती हवा-लहर बिन भी डाँवाडोल
सँभालता हूँ कभी पतवार, कभी पाल
बचा लूँ, बचा रहूँ…
यही है अवदान
कई रातें यों भी गुज़रीं
कि अगर सुबह नहीं बचता,
क्या फ़र्क़ पड़ता!
सच कह नहीं सकता,
झूठ की आदत नहीं,
चुप रह नहीं सकता
कल मेरा क्या होगा क्या पता
कोई साथ नहीं,
सफ़र के लिए कहीं कोई आरक्षण नहीं
दिशा और दशा तय नहीं
मेघ हूँ…
सात
अँधेरे का सहवास, प्रकाश का हस्तमैथुन
अस्वीकार का अवसाद, स्वीकार की ग्लानि
जज़्बाती ज़ात से ही हूँ,
यक्ष ने दे दिया संदेह…
अब कुछ नहीं जीवन में संताप के सिवा
हज़ारों-हज़ार साल के सफ़र में एक छत न बन सकी
जहाँ रह सकूँ—आकाश के साथ
मेरी सृष्टि एक बलत्कृत स्त्री,
मैं उसकी संतति
पूछता हूँ बदहवास
मेरा जनक कौन है?
दीवार की तरह चेहरे सपाट,
मीनार की मानिंद ऊँचे क़द,
सब तरफ भावशून्य
निष्ठुर उच्छ्वास
इस जहालत से भरी दुनिया में क्या ही किसी से पूछना,
यहाँ भावनाएँ होती ही रहती हैं आहत
देवी-देवता यहाँ रोकते हैं राहगीरों को,
खुले में करने से पेशाब
गायों के मुँह पर लगाया जाता है जाब।
आठ
दे दूँ फ़रेब!
आख़िर क्या ज़रूरी है छुपानी यक्ष की बताई सहिदानी
मनुष्य की आकांक्षा के आगे कम पड़ते संसार में,
जहाँ दूर ग्रहों पर बस रही हैं बस्तियाँ
वहाँ आख़िर क्या रखा है बनने में—
संवदिया!
…यह सोचते ही म्लान मुख यक्ष का आ जाता सम्मुख
जाने कितने मेघ यक्ष का समाद न पहुँचा सके यक्षिणी तक
रहे ख़ुद को भर जीवन झुठलाते,
देते लारा।
नौ
इज़्तिराब था या इल्हाम की ऊब-डूब,
यों ख़ुद की धर-पकड़ में रहा कुछ इस क़दर मसरूफ़
क्या वसंत कैसी बहार—नज़र के सामने—ज्यों सब बीत गया, त्यों सब रीत गया।
ख़ुशी की नेमत बनकर जब-तब ज़िंदगी में आईं कुछ शामें,
आबला-पा ज़रा दूर ही जा सका…
माँ बहुत याद आई।
ख़ुशी आते ही कर गई मायूस
पहली ही ओस में गिर गया दरख़्त से—
खिलता हुआ हरसिंगार।
मैंने बहुत शिद्दत से चाहा,
मुझे भी मिले यक्ष का इंतज़ार
मेरी ज़िंदगी में भी घटित हो तपस्या की तरह कोई श्राप…
उसने
कहा
था :
तुम्हारे लिए करूँगा प्रार्थना,
कब तक भटकोगे?
पूर्ण करो यह यात्रा…
मुझ पर गुज़रता तुम पर न गुज़रे, ध्यान रखना—
तुम्हारी सहृदयता की होगी हर ठाँव परीक्षा
संशय-क्षण में मुझे याद करना
मार्ग है बाधामय,
आत्मदान ही है स्वभाव तुम्हारा
त्याग करते हुए जाना
तुमसे बेहतर कौन जानता है निर्भार होना
लगाकर चिलम, पीकर भाँग कहीं खो मत रहना
मुसाफ़िर हो तुम—सफ़र से मफ़र का नहीं कोई रास्ता…
दस
जीवन है या किसी दग्धकवि का विचार
जब भी नज़र के सामने आता कोई चारासाज़
बेबात यूँ ही जाने क्यों बदल जाती मेरी राह—
विरह
पर
विरह
की
गाँठ
पर
गाँठ!
उड़ गए उड़ते-उड़ते तितलियों के रंग,
खो गई जागते-जागते जुगनुओं की रोशनी।
कोई कविता, कोई तस्वीर, कोई ख़्वाब—मुकम्मल नहीं
अब न मैं क़ैद हूँ, न आज़ाद
जैसे सर्दियों की बारिश में भीगे कबूतर की परवाज़…
ग्यारह
अधूरापन कहीं भी घेरता—सारे बर्ताव पर असर करता—
आँखें कहीं, दिल-ओ-दिमाग़ कहीं
जुड़ न पाने का अभिशाप
रहता साथ!
एक रात स्वप्न में :
अधूरापन खाता
ख़ुद
को
—रुको… रुको…
नहीं साधा अभी कोई शब्द
नहीं अर्जित किया कोई अर्थ
इस तरह मरना भी व्यर्थ!
स्वप्न-भंग :
सब वीरान,
निचाट रात का सूनापन
बेचैनी, ग़ुस्सा, रुदन—
किरदार से निकलने की छटपटाहट माँगती अदाकारी का हिसाब
बहुत दूर अलकापुरी…
पता नहीं कब पहुँचोगे वहाँ
और लौटोगे भी या नहीं यहाँ…
बारह
आख़िर कब होगा पूरा यह स्वाँग?
कब मिलेगा इस नाटक से निस्तार?
चेतना पर भार!
कब तक अन्याय?
होगा कोई काव्यात्मक न्याय?
या यूँ ही रहोगे अधूरे स्वाँगों के नटसम्राट!
चुप्पी
या
सूक्ति?
श्रुति
या
कविता?
असहनीय अब अमूर्तन!
स्पष्ट गद्य में बोलो,
खोलो—ख़ुद को—
मैं लहूलुहान—ख़ुद को समेट आर्तनाद करता हूँ। कहाँ पाऊँ उसे जिसने मेरा किरदार गढ़ा है। अपनी विक्षिप्तता में गर्जना करता हूँ। इस अधूरेपन के कोलाहल में भागने का अब और कोई उपाय नहीं है। दुनिया के क़ायदों और वबाल से अलग अपनी ही फ़िक्र-ओ-धुन में उलझा हुआ देखता हूँ—एक भड़की हुई भीड़ दौड़ी आ रही है मेरी तरफ़…।
तेरह
चित्त इतना खिन्न, भावना-सूत्र इतना उलझा
कि भय है कहीं कह न दूँ—
प्रेमिका को माँ!
जन्मजात वैरागी-सा
जब-जब स्त्रियों के निकट गया,
ख़ुद में भागता आया!
बारहा टूटा हवा के झोंकों से
रूई की तरह उड़ता,
बिखेरता धनक के रंग
विद्युत की यातना सहता
अवसाद का अनुवाद—
एक रूप
एक रस
एक रंग…
होना चाहा।
चौदह
जाने किन शहरों, किन क़स्बों, किन गाँवों में निकलता चाँद
याद को वहाँ से यहाँ खींच रक़ीब की तरह पटक देता मेरे पास
यूँ लेता वह चुपचाप मेरे सब्र का इम्तिहान
शाम को जब बढ़ने लगती धीरे-धीरे नदियों की बेकली
घुटन का धुआँ जब लगता एक ही पल में दबा देगा गला
दिल टूटता इतनी किरचों में—सँभालना मुश्किल!
पंद्रह
जीवन जीने के लिए ज़रूरी क्यों इतनी निष्ठुरता,
मनुष्य कठोर क्यों इतना?
मैं कठोरता ला नहीं पाता,
इसलिए कहीं जा नहीं पाता
ख़ुद को नष्ट करता हूँ—
ख़ुद को बचाने के वास्ते
रोज़ जाने कितने ख़ून होते ख़ुद के भीतर, ख़ुद को जिलाने के वास्ते
इतने मुँह हैं कि एक को पिलाता हूँ पानी तो दूसरा माँगता है शराब!
इतना व्यापक है भावना का रोज़गार
कि ख़ुद की ख़ुशी के लिए ख़ुद को ही देना पड़ता है दुःख
किसी से मिलने के लिए उसी पल बिछड़ना होता है किसी और से
एक साथ नहीं हो सकता सबसे प्यार!
आज ख़ुशी दे रहा है जो कल करेगा उदास
ख़ुद को ज़मीं-दोज़ करने के लिए खोद रहा हूँ क़ब्र
गहरी और गहरी होती जा रही क़ब्र,
ऊँचा और ऊँचा होता जा रहा क़द
मुसलसल कश्मकश,
हाथ में कुदाल
पसीने-पसीने गिन रहा एक-एक साँस…
सोलह
अब,
नाटक घोषित हो चुका,
वह कुछ नहीं कर सकता।
दर्शक उपस्थित हैं,
वह कुछ नहीं कर सकता।
पर्दा उठ चुका,
वह कुछ नहीं कर सकता!
उसके मनुष्य ने असहयोग कर दिया,
उसके भीतर के अभिनेता से।
वह नदियों में उतरने से बचा,
स्वाँगों में डूबने से बचा,
लेकिन अब नदियाँ दौड़ती हैं लहर बन,
स्वाँग ढूँढ़ते हैं अपना आकाश…
उसे कोई सिरफिरा मत समझना—
दीवानेपन में कभी हँसता, कभी रोता
कभी इसका नाम बकता, कभी उसका
कभी एक नाटक के संवाद बोलता, कभी दूसरे के—
अधूरे स्वाँगों का बोझ सिर पर उठाए दर्शकों को देखता
कोई नट—
मंच पर मौजूद!
अब,
कहीं नहीं अभिनय,
वह कुछ नहीं कर सकता।
नहीं याद संवाद,
वह कुछ नहीं कर सकता।
तुम्हें देखना है स्वाँग?
वह कुछ नहीं कर सकता!
सत्रह
जब भी दुनिया को देखता हूँ—भावना के स्तर पर—
महसूस करता हूँ एक उदासीनता।
यह उदासीनता अवशेष है—अस्तित्व के लिए अपनाई गई निष्ठुरता का…
यह सब तरफ़ है—
अंत
से
आरंभ
तक!
अठारह
इतना प्रेम है अधूरेपन से
कि अब कोई स्वाँग पूरा नहीं करना चाहता।
सुखी होना पाप है!
एक छलाँग,
एक बार में पूरा नहीं होता स्वाँग,
अधूरा ही रहता है…
चाहता हूँ अब डूब जाऊँ,
देखता हूँ नदियों में कम पड़ गया पानी!
मृत्यु के विषय में सोचना अपमान है जीवन का,
लेकिन इसका क्या कि बार-बार मरा हूँ मैं,
किसी नदी की सतह पर तिर रही है मेरी देह
मछलियाँ चुग रही हैं—धीरे…धीरे…धीरे…
- पुस्तक : सदानीरा पत्रिका, अंक-21 (पृष्ठ 137)
- संपादक : अविनाश मिश्र
- रचनाकार : सुधांशु फ़िरदौस
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