आवहु-आवहु मेघ कहाँ तुम छाय रहे?
निज प्रेमिन कहँ भूलि कहाँ बिलमाय रहे?
आवहु-आवहु भारत के जीवन-धन प्रान,
ताकि रहे टक लाए तेरी ओर किसान।
या बूढ़े भारत कहँ दूजी और न आस,
स्वाति बिना चातक की कौन बुझावे प्यास।
तुम बिन या भारत को दूजो औ न कोय,
साँच कहैं तुम्हरे आगे क्यों राखैं गोय?
धूरि उड़त चारहुँ दिस सूखे खेत परे,
आवहु-आवहु फेरि करो इक बार हरे।
धावहु हे घन! जावहु पुनि खेतन पर छाय,
देहु न किन मोतिन सम निज जलकन बरसाय?
आवहु पुनि बसुधा की पूरी आस करो,
हरे-हरे खेतन सों वाकी गोद भरो।
तेरे भारतवासिन की है एक लकीर,
बने भए हैं वाही के जो सदा फक़ीर।
जो घर बन बीहड़ महं राखत तुम्हरी आस,
सो सब सीस झुकाए बैठे निपट उदास।
जो तुम्हरे बल रहते है घन! सदा निसंक,
देखहु किन, सो आज भए रंकहुते रंक।
तुम्हरी सेवा करते दीन्हीं आयु बिताय,
अब तिन कहँ बिन तुम्हरे को है आन सहाय?
एक भरोसो तुम्हरो जिनके राम समान,
दूजो और न सपनेहू महं जिनको ध्यान।
तुमहिं छाड़ि हे मेघ! कहो काके ढिक जाहिं?
कापर करहिं भरोसो कछु सोचो मन माहिं?
एक बारि आषाढ़हि आए बरस बिताय,
बरसायो जल चित्त गए सबके हरखाय।
तबसों मेघ! न पायो तुम्हरो दरस बहोरि,
ताकि रहे हम ताही दिन सों नभ की ओर।
तव प्रसाद तें भूमि गई ही जो हरियाय,
तेरो पंथ निहारत धूरहिं गई बिलाय।
सूखे बन उपबन परबत झुरि जरि गई घास,
डोलत खग मृग जीह निकासे निपट उदास।
तेरे बल जो दाने निकसे परबत फार,
बिन तेरे सो होय गए जरि बरि के छार।
सूखी तरुरा जी झुरी-झुरी के परि रहे पात,
सूखे सरिता सर ऊसर चहुँ ओर लखात!
इमि बीत्यो असाढ़ अरु सावन हू गयो बीत,
देखे कहूँ न झूले सुने न तेरे गीत।
सजी न अब के तेरे दल बादली फ़ौज,
लूटी हाय न तेरे घन गरजन की मौज!
चमचम करि चम की नहिं दामिनी एक हुँ बार,
अरु नहिं छाए घोर-घोर घन करत अँधार!
बह्यो न पूरे बेगहि सीतल सरस बयार,
नभ महं उड़त न देखे बकगन बाँधि कतार।
पी पी शब्द पपीहन को कोयल की कूक,
झीं झीं झिल्लीगन की अरु मोरन की हूक।
कछु नहिं पर्या सुनाई सावन बीत्यो हाय!
अरु भादो हूँ सूखो सूनो गयो बिलाय।
सूखे डाबर सूखे नाले नदी तड़ाग,
बिखरी चहुँ दिस ग्रीसम हूँ सों बढ़िकै आग।
पय बिहीन सिसु, मात-पिता सब अन्न बिहीन,
त्रिन बिहीन पशु डकरावत ह्वै कै अति दीन।
भादों बीत्यो अरु आसिनहू बीत्यो जाय,
तौहूँ दया न ब्यापी घन तेरे मन हाय!
वह देखो पशु लोटत भुँइ महं परे बिहाल।
वह देखो नर नारी डोलत जिमि कंकाल!
वह देखो शिशु डोलत जिनके बाप न माय,
देखहु-देखहु गीध रहे सिर पर मँडराय!
देखहु-देखहु दिन दोपहरे डोलहिं स्यार,
सिवा रुदन छायो चहुँ दिस अरु काक गुहार!
द्रवहु-द्रवहु भारत पर अबहूँ हे घनश्याम!
अब न बचावहुगे, आवहुगे पुनि केहि काम?
जदपि भए जीवन सों अब सब लोग हतास,
तदपि नाहिं टूटत हे नवघन! तुम्हरी आस॥
- पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 644)
- संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
- रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
- प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
- संस्करण : 1950
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