ऐ अल्ला,
कम-से-कम इन नास्तिक के थाली में खाना खाकर तो जाओ
यह जमाना क्यों हमें ख़त्म कर रहा है?
क्या कोई रहम करेगा इस झुण्ड पर?
‘सनमखाना...’
इस सनमखाने के वास्ते
यह उमरक़ैद किस लिए?
भलाई—वह भी दीन-दुनिया की
इन कलमा के पन्नों को कितनी बार चबाना है?
कितीन जुगाली करना है मंद वही वही सीठी की
यह भारी पत्थर
कितनी बार पीठ घिसना है उस पर
‘नसीब’—वह भी कितनी बार गिनना है उँगली पर
सुलेमान हलवाई वाला
गुलशन फुटवेअर
देखते-देखते ये उग आए खाद्यों के चंद्र/’अर्धचंद्र’ खाने की चीज़ों के
ऐ अल्ला,
यह तुम्हारी देह से महकती हुई नानकटाई की ख़ुशबू
कीड़े-मकोड़े
ये चीटियाँ किस को ढकेल कर ले जा रही हैं?
ये अटक गई—सो ज़िंदगियाँ
क्या रखेगी ताबा?
क्या करेगी तोबा?
इसलिए
या पुतलियाँ फैलती जा रही बाँग की पुकार पर हुक्कम
ग़लती जा रही देह के लिए कहेंगे पायन्दाबाद
कम-से-कम यह रंडीबाजी हुकूमत जचगी के लिए
ऐ भेण्डीबझार!
गुनहगार का सिक्कामोर्तब तो किया ही था तुझ पर पहले
अब काफिरों की फेहरिश्त में तो सला लो अपने आप को
अरे,
यहाँ के सारे धर्मसंस्थापक होते है मवाली, हत्यारे
अब
इस मजहबी अल्ला की इस कमाई से तो परख ले
बेवजह क्यों चाहिए मात्र शब्दों की बरसात
ज़िंदगी के दरवाज़ों को तोड़ते जाने वाली?
- पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 110)
- संपादक : चंद्रकांत पाटील
- रचनाकार : नामदेव ढसाल
- प्रकाशन : साहित्य भंडार
- संस्करण : 2014
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