मन चलने लगता है लोगों साथ
man chalne lagta hai logon sath
तन घर में
मन बेघर होकर भटक रहा है बाहर
मन चलने लगता है उन लोगों के साथ
जो सिर पर रखे पोटली भारी
मीलों पैदल चले आ रहे शहर छोड़कर
उनके पाँवों में छाले हैं
उनको रोटी के लाले हैं
लौट रहे अपने गाँवों की ओर
उनके पीछे मौत पड़ी है
मन चलने लगता है उन लोगों के साथ
जो पीस-पीसकर अपना जीवन
दो पाटों के बीच
डूबे रहते इस चिंता में
सब अपने घर कैसे लौटें
उनके पीछे मौत पड़ी
मन चलने लगता है उन लोगों के साथ
जो भाग रहे हैं अपने घर से
बचते फिरते अपने डर से
गलियाँ भरी हुई नफ़रत से
अपने घर वे कैसे लौटें
उनके पीछे मौत पड़ी है
- रचनाकार : ध्रुव शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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