खूँटे से बँधे हुए
khunte se bandhe hue
हम लोग बँधे हुए हैं
हम लोगों को अतीत ने
‘हरी’ में ठोंक रखा है
हज़ारों साल बीत जाने के बाद भी
हम लोग निरंतर चलते हुए
उसी जगह खड़े हैं
हम लोगों का अगला पड़ाव
दिन भर चलने के बाद
सायंकाल
फिर उसी जगह होता है
जहाँ सुबह हुई थी
और हम उठकर चले थे
कोल्हू के बैल की तरह
हम लोग समन्यवादी हैं
लड़ने की बजाय हम लोग
बच जाने की राह बनाते हैं
ज़िंदगी भर अतीत की ही
जुगाली करते हैं
हम लोग
बाप के बाप और उसके बाप के बाप
यानी अनगिनत बापों की परंपरा में जीते हैं
एक दुर्निवार माया ने
समूचे देश को
अपने पल्लू में ढँक रखा है
इसीलिए ढेर सारी लाशों के बीच रहने में
हमें गौरव बोध होता है
लाशों की अनेक अक्षौहिणियाँ
हम लोगों के माथे में
प्रेत नृत्य कर रही हैं
हथियारों से ‘हैण्ड्स-अप’ करा रखा है
समस्त वर्तमान और भविष्य को
एक अजीब अजगर ने दबोच रखा है
अपना नुकीला ज़हरीला दाँत
हमारी पीठ में उसने चुभो रखा है
हम लोग बँधे हुए हैं
हम लोगों को अतीत ने
अँधेरे में भुला रखा है।
- पुस्तक : मैथिली कविताएँ (पृष्ठ 13)
- संपादक : ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद
- रचनाकार : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- प्रकाशन : पहल प्रकाशन
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