अपनी ओर देखते हुए

apni or dekhte hue

कुलानंद मिश्र

कुलानंद मिश्र

अपनी ओर देखते हुए

कुलानंद मिश्र

और अधिककुलानंद मिश्र

    मैं अपनी तुलना

    गिरि-शिखर से निरंतर नीचे गिरती

    किसी निर्झरिणी से करना चाहता हूँ

    मुझे उचित ही संकोच होता है

    सरिता का आवेग और मुखरित स्वर

    मैं अपने लिए कहाँ से लाऊँगा?

    मैं अपनी समानता

    भादो के किसी उन्मत्त मेघ से

    करना चाहता हूँ

    मुझे तब भी संकोच होता है

    दैन्य मढ़े चेहरे पर

    मद और मस्ती की वह प्रलयंकर मुद्रा

    मैं कैसे चिपकाऊँगा

    कैसे कर सकूँगा मैं

    किसी शिरोरुह को क्षत-विक्षत?

    मैं अपनी बराबरी

    किसी लक्ष्यहीन,

    उल्कापिंड से करना चाहता हूँ

    मेरे आँगन का शाश्वत अँधेरा

    तब भी मुझसे व्यंग्य करता है

    परिस्थिति के तले दबा

    वैसे मैं ही अकेला नहीं हूँ

    ऐसे दूसरे लोग भी हैं

    जो गिरोह में बैठकर भी

    गिरोह के व्याकरण को नहीं जानते

    अपने लिए कोई गिरोह नहीं बना पाते।

    हँसना मुझे अपराध लगता है

    किसी भयंकर ख़बर की आशंका

    मुझे बेचैन किए रहती है

    ख़तरे में पड़े अपने लोगों की बाँहों के घेरे

    मेरे लिए कभी छोटे नहीं पड़ते

    मुझे हमेशा याद रहता है

    कि अन्याय के विरोध से ही

    मेरे अपराध की डायरी शुरू हो जाती है।

    मैं आततायियों का सहगामी रहा हूँ

    गाँव-गाँव, नगर-नगर

    निरर्थक भटकता रहा हूँ

    सामूहिक हत्या के बीच

    बेटे के लिए खिलौने खरीदना

    मेरी एकांत विवशता रही है।

    आत्मदया का अभिनय करते हुए

    मेरी अच्छी-सी आकृति

    विकृति में बदल गई है

    मैं किसी दिन पेड़-पौधों की बातें

    भरपूर करना चाहता हूँ

    मेरा—

    भाषा पर से विश्वास इधर उठा जा रहा है

    मैं आख़िरी बार

    उसी अन्याय की बात करना चाहता हूँ

    जिसके प्रतिरोध की बात

    हम लोग कई वर्षों से सोचते रहे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैथिली कविताएँ (पृष्ठ 41)
    • संपादक : ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद
    • रचनाकार : कुलानंद मिश्र
    • प्रकाशन : पहल प्रकाशन

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