एक
मैं लिखता हूँ प्रेम
गमले में खिले एक अनाम फूल
और उसे सींचते दो परिचित हाथों को
देखकर
मगर
उसी पल लिखता हूँ मैं नफ़रत
आसमान की तरफ़ पत्थर फेंकते हुए
और पाता हूँ
कि लिख रहा हूँ बारिश
धान के हरे खेतों के विस्तार को
ताकता अनिमेष
मैं गाता हूँ हरियाली
पर पाता हूँ
मैं लिख रहा हूँ गाली
और मुझे पता नहीं किसके लिए
किस वजह से किस जगह पर
खड़ा हूँ बेचैन
विस्मृत वह स्वप्न वह शपथ
वह हरा वह लाल
वे सारे के सारे रंग
संसार के
कहाँ गए अचानक?
फिर मैं लिखता हूँ दुख
शहर में नंगे पाँव प्रवेश करती
सिर पर गट्ठर लिए औरत का
जो अभी-अभी कुचली गई
किसी कार की रफ़्तार से
नहीं
मेरी लिखत से मेरी क़लम से
मेरी दुनियादारी मेरी समझदारी से
मरी वह
कहीं बाहर नहीं
मेरे मन में
बल्कि उन अक्षरों में
जिनमें लिखने की कोशिश में
मैंने देखा
पहाड़ी के उस पार के अँधेरे गाँव को
दो
और तब मैं लिखता हूँ बचपन
आम और जामुन और महुए के पेड़
और नदी
और उसका सूखना निरंतर
और बदल जाना एक गंदी नाली में
तब फिर दुबारा लिखता हूँ गाली
पर रोता हूँ कहीं अंदर
और पीता हूँ ज़हर
फिर दुबारा लिखता हूँ प्रेम
फूल तोड़कर देवता पर चढ़ाते समय
प्रार्थना करने
और शहर भर भटकने के
इन अजीब-ओ-ग़रीब पलों में
मुझे दानव-सा दीखता है
अपना थुलथुलाता शरीर
उसी में रची-बसी बीमारियों के पीछे छिपे
काले और पत्थर समय के लिए
मैं लिखता हूँ अपनी अंतिमा
अमावस की रात-सी काली
दुपहर की धूप-सी उजली
अपनी आख़िरी लिखत यह
मैं लिखता हूँ पत्थर के अक्षरों से
जो आसमान से टकराकर
मेरे सीने पर बरसते हैं लगातार
- रचनाकार : प्रभात त्रिपाठी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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