अच्छा होता मुझे शब्दों और स्थितियों की
पहचान नहीं होती
न इस बात का ज्ञान होता कि समय हाथों से
निकला जा रहा है।
दिन संदर्भों के बिना पूरा हो जाता
और रात का अर्थ मेरे लिए इतना होता कि मैं
लेटते ही ख़र्राटे भरता
न किसी के होने-न होने का असर होता
न यह पता होता कि कौन किस बात को
कब और किस इरादे से कह रहा है
यह कि उसके कहने और करने में कितना
फ़ासला है
और यह भी कि फ़ासले को कौन किस मतलब से
नापता है
या उसमें टाँगें गाड़ कर
कौन अपना सिर उठाता है
यह कि उसके लिए शब्दों को कौन योजनाओं की
इमारतों में
खुला छोड़ देता है
कि अर्थ की तसवीरें ही पनाह माँगती हैं
अच्छा होता किन्हीं बातों को मेरी आँखों में
जगह नहीं मिलती
न तर्क की सतहों पर अंदर की आँखें
संबंधों के संबंधों को देखती
अच्छा होता सतहों के नीचे अपेक्षाए नहीं कुलबुलाती
न भीड़ में मेरी महत्वाकांक्षाए उतावली होती
यह सब नहीं होता
मैं होता 'मैं'-सीधा और आसान
और भागता हुआ समय गुसैल होने के बजाए
हँसता हुआ
एक नंगा बालक होता
- पुस्तक : निषेध (पृष्ठ 91)
- संपादक : जगदीश चतुर्वेदी
- रचनाकार : श्याम परमार
- प्रकाशन : ज्ञान भारती प्रकाशन
- संस्करण : 1972
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