महानगर में पुरबिए
mahangar mein purabiye
वे रोप रहे हैं पाँव
सपने
और व्यवसाय
उन महानगरों में
जो चाहता है सिर्फ़
उनका जाँगर
एक अजीब-सी बेचारगी और हेकड़ी के साथ
पसीने के प्यासे महानगर में
दुगुने पसीने में लपेट के जमा रहे हैं निगाह
किसी अनजान-से ठीहे पर
जहाँ टिका सकें अपने गाँव के सपनों को।
कि गोबरउरा के जनम की तरह
चाहे जैसे पर मिले मुक्ति
सदियों पुराने नरक से।
ठसक और निरीहता का अद्भुत मिश्रण है उनमें
कि हम जहाँ रहे हैं
तनी रही हैं मूँछें
कि सात समुंदर तक को नाप कर
सोना उगा देने वाला
ज़ोर है
हमारी बाज़ुओं में
पेट की बेचारगी
और लाठी की चमक को लिए-लिए
बाढ़, अकाल और परिवार के बोझ को
महानगरों की खूँटी पर टाँग रहे हैं पुरबिए।
घनघोर ईर्ष्या और अपूर्व आत्मीयता को
काँखों में दबाए
किसी चोरगली में जाति को छिपाए
महानगरों को सँवार रहे हैं पुरबिए
खर-पतवारों की तरह
एक तरफ़ से उन्हें हटाता जा रहा है महानगर
पर जलकुंभी की तरह
नगर को आग़ोश में लेते जा रहे हैं पुरबिए
सुविधाओं के प्यासे महानगरों की ओर जाती पटरियों पर
चिटियों की फ़ौज की तरह चढ़े आ रहे हैं पुरबिए
अजीब दुविधा में घिरे हैं पुरबिए
कि चाय की दुकान
और सेठ की दरबानी के बीच
मूँछ के नुकीलेपन को कहाँ रखें?
- रचनाकार : प्रमोद कुमार तिवारी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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