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भूल पाने की लड़ाई

bhool pane ki laDai

आलोकधन्वा

आलोकधन्वा

भूल पाने की लड़ाई

आलोकधन्वा

और अधिकआलोकधन्वा

    उसे भूलने की लड़ाई

    लड़ता रहता हूँ

    यह लड़ाई भी

    दूसरी कठिन लड़ाइयों जैसी है

    दुर्गम पथ जाते हैं उस ओर

    उसके साथ गुज़ारे

    दिनों के भीतर से

    उठती आती है जो प्रतिध्वनि

    साथ-साथ जाएगी आजीवन

    इस रास्ते पर कोई

    बाहरी मदद पहुँच नहीं सकती

    उसकी आकस्मिक वापसी की छायाएँ

    लंबी होती जाती हैं

    चाँद-तारों के नीचे

    अभिशप्त और निर्जन हो जैसे

    एक भुलाई जा रही स्त्री के प्यार के

    सारे प्रसंग

    उसके वे सभी रंग

    जिनमें वह बेसुध

    होती थी मेरे साथ

    लगातार बिखरते रहते हैं

    जैसे पहली बार

    आज भी उसी तरह

    मैं नहीं उन लोगों में

    जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को

    और चैन से रहते हैं

    उन दिनों मैं

    एक अख़बार में कॉलम लिखता था

    देर रात गए लिखता रहता था

    मेज़ पर

    वह कबकी सो चुकी होती

    अगर वह अभी अचानक जग जाती

    मुझे लिखने नहीं देती

    सेहत की बात करते हुए

    मुझे खींच लेती बिस्तर में

    रोशनी गुल करते हुए

    आधी नींद में वह बोलती रहती कुछ

    कोई आधा वाक्य

    कोई आधा शब्द

    उसकी आवाज़ धीमी होती जाती

    और हम सो जाते

    सुबह जब मैं जागता

    तो पाता कि

    वह मुझे निहार रही है

    मैं कहता

    तुम मुझे इस तरह क्या देखती हो

    इतनी सुबह

    देखा तो है रोज़

    वह कहती

    तुम मुझसे ज़्यादा सुंदर हो

    मैं कहता

    यह भी कोई बात है

    भोर में नम

    मेरे छोटे घर में

    वह काम करती हुई

    किसी ओट में जाती

    कभी सामने पड़ जाती

    वह जितने दिन मेरे साथ रही

    उससे ज़्यादा दिन हो गए

    उसे गए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आलोकधन्वा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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