सुदीप बनर्जी के लिए
एक
कोई आवाज़ ख़ुद को गाती थी
कोई पत्थर सुनता आया था उसे
कोई नदी उसका संगीत बनती आई थी
मैं जानती थी मेरे जानने में बहुत कुछ और था
जिसे कहने के लिए एक जागी हुई रात चाहिए थी
मेरे जानने में सचमुच कितनी यादें थीं
पिछली सभ्यताओं में भोगे गए दुखों की
कितना बोध इतिहास के बदलने से बदले सच का
स्वप्न के उस राग का जिसे एक स्त्री
सदियों से गाए जा रही है
मेरे जानने में थीं तैरतीं कितनी अतृप्तियाँ मन को मथतीं
प्रेम के लिए मरी स्त्रियाँ त्रासदियों की नई शक्लें
अपनी मासूमियत में बची अब तक
क्रूरताओं को ढँके जैसे वे उनके ही ऐब हों
मेरे जानने में थीं अनेक वैसी यातनाएँ जिनसे वे पैदा हुईं
ग़रीब कातर पराधीन महत्वाकांक्षी वेश्याएँ
कुछ संयमित स्वाधीन मेहनती संतुलित इच्छाएँ
लेकिन थे कुछ वैसे भी विलक्षण लोग जानने में
जिनको याद करना स्वप्न के रागों को गाने जैसा है
मेरे जानने में है वह कवि
जिसकी कविताओं से मैंने बिंब चुराए
जिनसे मेरी रातें पूरी हुईं
कटीं बेचैन होती हुई उन्हीं के सहारे
मेरी कविता भी दिखी तभी अपनी संपूर्ण नग्नता में पूर्ण मुझे
मेरी आँखें चौंधियाईं खोजती रहीं नाहक़ किसी रहस्यमय प्रकाश को
मेरे जानने में है वह भी
जिसे मेरी कविताओं ने स्वयं चुना मेरे लिए
जिसे मैं ख़ुद चाहती थी
कोई साँस चाहे जैसे अपनी ही दूसरी साँस को
मगर मेरे चाहने से क्या कुछ कभी घटित हुआ
वह और दुरूह हुआ
गया दूर खोने किन्हीं और आलिंगनों में
ओस से भरी रात तभी रोती है वह रिक्त है
इतनी कि रिक्तता स्वयं चाहती है भर जाना
किसी उन्मादी प्रणय के अतिरेक से
और वह जो रात की अमर छाया-सा पड़ता था
मेरी आत्मा में उगे चंद्रमा पर
एक नाव जब पार कर रही होती थी
अपनी स्मृति की सबसे काली नदी
वह जानता था बहुत कुछ
जैसे वह जानता था
अपने बिस्तरों में तड़पती उन उनींदी इच्छाओं को
जो कभी पूर्ण नहीं होतीं
जैसे वह जो जानता है
भीलों और उनके जंगलों को
सभ्यता की कुल्हाड़ी जिन पर चलती है
गिराती रात-बिरात सैकड़ों वर्ष पुराने शाल सागवान को
वह जानता है उस नदी को भी
जो कभी शकुंतला होती है कभी इंद्रावती
यह सब जानना सचमुच कैसा अनुभव है
अनेकानेक ऐसे वृत्तांतों वाली सभ्यताओं को याद रख पाना
उनके एक भी दुख को ठीक से उन्हें भोगने जैसा ही है
और कौन भोग सकता है दूसरों का दुख
यदि स्वयं नहीं कवि
जो सुन लेता है कुल्हाड़ी की आवाज़
सागवान पर गिरने से पहले ही
देखता है जो एक बेचैन एकाग्रता में एक भील बच्चे को
अलकतरे की सड़क पर अकेले जाते हुए किसी खंदक की तरफ़
टाँगे अपनी अलमस्त पीठ पर किसी प्राचीन शिकारी की याद
उसके साजो-सामान उपकरण शिकार के
और उसे जानना जो कवि नहीं था
मगर कितना कवि-सा! कविता को जानने वाला
उसे जानना जानने को कितना गाढ़ा बनाता था
जो जाने अब कहाँ होगा किन आत्मीयताओं को खोजता
एक दिन पूरे जीवन को जिसने एक उदास रात बताया था
जिसकी जीवंत आँखें शिथिल होने का भ्रम पैदा करती थीं
असहनीय थीं जो अपनी ठहरी-सी तन्मयता में
एक ठंडी सुबह जो आया था लौटाने
एक अलविदा के साथ मेरा हृदय
मेरे जानने में हमेशा बची रहेगी उसकी मानवीयता और ऊष्मा
उसकी आवाज़ घुमड़ती रहेगी जिसमें उसने मुझे
नाज़िम की कविताएँ सुनाईं जैसे उन्हीं के स्वर में
मेरे जानने में इस तरह शामिल हैं
सभ्यताओं से छनकर आई तरह-तरह की पीड़ा
सत्य के छल-छद्म और उसके अनगिनत रूप
अप्राप्य प्रेम और उसकी लालसा
डबडबाई नदियाँ कादंबरी शकुंतला
और वे सब जिन्हें कुछ कुछ पता है उन काली रातों का
जिसमें स्वप्न गाते हैं अपने रागों को
सुनती है जिन्हें रात जगी रहती है जो उनकी नींदों में सदा
जिसमें जंगल के जंगल कटते हैं
भीलों के शव शीशम और शालवृक्ष गिरते हैं
मनुष्य की जैसे मनुष्यता
मेरे जानने में हैं ढेर सारी और बातें
लिखी जाएँगी जो और कभी
अभी तो एक टीस है एक अतृप्ति जो भरे हुए है सारे अस्तित्व को
जैसे यह सृष्टि है ही रोने और दहकने की कोई खास जगह
जैसे राग होते ही हैं रुदन को सहनीय बनाने के लिए
उन्हें बदलने के लिए किन्हीं और अनुभवों में
जिससे बची रहे दुख की पवित्रता
और स्वप्न...
उनके दमित असंख्य दूसरे राग
उनके बारे में भी और
कभी और सही
अभी तो फ़िक्र है इसी साँस की जो बेआवाज़ चलती है
एक नीला रंग जिसमें घुलता है
जिससे अंदेशा होता है कहीं है आस-पास ही समुद्र कोई
जिसकी उठती-गिरती लहरें हैं वे औरतें
वे रागिनियाँ अतृप्तियाँ वे, सुनहरी वैसी आकृतियाँ
जिनमें मेरा एक देश भी है
यहाँ से दिखता है जो जैसे कोई स्वप्न चलता हुआ
हज़ार हज़ार दुश्वारियों से भरा
जवान होती उस लड़की की तरह
धीरे-धीरे जिसकी छातियाँ भर रही हों
मेरे स्वप्न मेरे प्रेम मेरे ज्ञान के मर्मर
लौटना ही होगा हमें कल दूसरे रागों के संग
जब यह रात जो जीवन है
बिल्कुल चुप होगी
और हम सुन सकेंगे सागवानों के गिरने की आवाज़
जैसे अपनी ही भूलें भीतर के किसी जंगल में
दो
हम लौट ही आए हैं फिर
इस रात उन रागों के लिए
जिन्हें जंगल गाते हैं
सभ्यताओं के आत्मतोष के लिए
उनके सम्मोहन को बनाए रखने के लिए
बची रही हैं कितनी ही प्रजातियाँ
कितने पेड़ अब भी गाते हैं प्राचीनतम गीत
जिनके रागों के नाम अब किसी को याद नहीं
इस रात जब हम लौटे हैं
पत्तों की नसों में ठहरे ख़ून को टटोलने
जब स्वप्न अपनी आँखें मूँद
बेख़बर रात से
कुछ और देख रहा है
जब उसके और यथार्थ के बीच की झिल्ली
हमारी आँखों में उतर आई है
और हम साफ़-साफ़ देखने का स्वाँग नहीं कर रहे
इस रात सुनना देखने से बड़ी क्रिया है
इस रात हम सुन पा रहे हैं अभी से ही
झींगुरों के मैथुन स्वर झन-झन
कुछ और भी आवाज़ें
अनगिनत स्वर जंगलों में जो सदा से रहे हैं उनकी पहचान की तरह
आज रात जो स्वर हम सुन सकेंगे विस्तार से
वह जिसे कोई सुनता नहीं इस स्वतंत्र देश में
यह आवाज़ उनकी है जिनकी हालत बद से बदतर होती गई है
इस आवाज़ में एक रोष है
एक अजीब आग सुलगती लकड़ी में ज्यों बची हुई
जिसकी लहक से जल जा सकता है सारा जंगल
उनकी बातों में एक ईमानदारी है
एक खरज
जो नहीं पा सकते हम उन गर्वीली आवाज़ों में भी
जो उठती हैं तो सिर्फ़ दमन के लिए
हम सुनें आज उस स्वर को
जो मौतों, आत्महत्याओं, विलापों के बाद भी घुमड़ता रहता है
जैसे भूख की आवाज़ बदहवास
इस आँत से उस आँत में
दुःस्वप्न के इस राग को हम सुनें आज रात
जो है उनके आश्चर्य में जैसे क्षोभ में
कि किसने सचमुच याद किया है उन्हें
उन्हें समझने के लिए, दया करने के लिए नहीं
आश्चर्य है उन्हें कि हैं कुछ लोग अब भी
जो जानते हैं मनुष्य को उसकी मनुष्यता में
कि मनुष्य होते हैं कुछ करने के लिए रचने के लिए कुछ सुंदर
गोलियों से भून दिए जाने के लिए नहीं
हालाँकि वे यह भी जानते हैं कि पीड़ा सहने से
जैसे बनता है जीवन का एक स्वर
वैसे ही प्रतिरोध करने से भी
तभी तो बची रही हैं कितनी ही प्रजातियाँ इस विश्व की
जैसे मुंडा, भील, गोंड, उराँव अपने देश की
जिनके दुःखों से ही आँखों का पानी बना
जिनकी चीत्कारों से बनी तरह-तरह की आवाज़ें
बस गईं जो चिड़ियों, मेढकों, हिरणों और
न जाने कितने दूसरे जीवों के कंठों में
जिनके थके बिंधे शरीरों से श्रम उपजा
नदियाँ, जंगल, खेत जिनकी सिसकियों से सींचे गए
यह तो किसी दिकू की समझ के बाहर की बात है
मगर जो लौटे हैं सुनने स्वप्न के दूसरे रागों को
उन्हें तो सुनना ही होगा दुःस्वप्न के इस राग को भी
आत्मकथा की तरह जो ढोल की थाप पर
देश की आत्मा के बहुत भीतर बजता रहा है
जिसे लिखना भाषा की अपर्याप्तता को दर्शाने जैसा है
ढोल की आवाज़ को हम कैसे लिख सकते हैं
कैसे लिख सकते हैं बलात्कार की आवाज़ों को
इन्हें लिखने वाले सिर्फ़ रो सकते हैं
और ये कितनों के रोने और तड़पने के साक्षी
कितनों की पराजय की पीड़ा में शामिल
कटते पेड़ों की तरह कटती देहों को
इन्होंने देखा है
देखा है अपने बच्चों की हत्या होते
थप्पड़ खाते दिकू लोगों के हाथों
बेगार करते मिटते अपने भविष्य को
अपनी जमीनों का जाना जिन्होंने देखा
अपनी औरतों का नष्ट होना
ज्यों मिट्टी हो जाना
वे ही कह सकते हैं एक स्वर उन्होंने बचा रखा है
कहने के लिए कि कितना ज़रूरी है
इस संसार को अपनी ही ख़ूँरेज़ी से बचाना
वे कह रहे हैं या कि गा रहे हैं
कि वे पुराने हैं बहुत पुराने
उन्होंने देखे हैं छह सौ चालीस चाँद
और भगवान का मरना भी
जबकि बिरसा भगवान मर नहीं सकता
जब तक तीर है और निशाना
जब तक आता है इन्हें विषकंटक से विष निकालना
पकाना उसे तीर पर लगाना
यह भी आत्मकथा कहने जैसा है
ढोल की थाप-सा
अलबत्ता अलग ढंग से
वे हैरान हैं कैसे इस रात
यूँ इकट्ठा हुए हैं ऐसे लोग जो सुनना चाहते हैं
स्वप्न के बचे-खुचे रागों को
पुरानी नई कथाओं में जो सुप्त पड़े हैं
उन्हें चिंता है सारी बातों को ठीक से कहने की
वे जानते हैं कह पाने में ही होती हैं बातें
जैसे कहने के ढंग से ही संभव होती है कथा
जैसे सुनने और कहने में ही है यह सृष्टि
सुनने और बजने में है जैसे अस्तित्व ढोल का
मगर कही जा रही हैं जो बातें यहाँ
चाहिए उन्हें सुनने के लिए दूसरे कान
सुन सकें जो आवाजें भिन्नता की
सुनने के साथ-साथ जो सोचे
प्रकृति और समाज के बीच
नए अनुबंध की दरकार पर
क्यों प्रजातंत्र बोलने और सुनने की स्वतंत्रता के अलावा
सुनिश्चित करे सह-जीवन तमाम जीवों का
आज जब हम एकत्र हुए हैं
सुनने के लिए उन रागों को
जिन्हें जंगल गाते हैं
अपने जीवों के आत्मतोष के लिए
हम न छोड़े बातें अगली रातों के लिए
न सुनें एक चुप में गिरते सागवानों की आवाजें
भीतर गिरती अपनी ही भूलों की तरह
हम तय करें आज ही, अभी
जब रात जो जीवन है, फैली हर सिम्त
और स्वप्न शामिल कॉमरेड की तरह
हमारी बातचीत में
कि हम दाख़िल होंगे अपने होने के नए दौर में
अपनी ज़मीनों कथाओं से विस्थापित होकर नहीं
बल्कि निकलकर ढोल की आवाजों के साथ
उसे ज़ोर से बजाते हुए
- पुस्तक : स्वप्न समय (पृष्ठ 114)
- रचनाकार : सविता सिंह
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2013
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.