जीवन-चक्र
बच्चे तो कब के मार दिए गए
और जो दुर्भाग्य से जीवित रह गए
भविष्य में मरने और मारने के ही काम आए
बच्चे तो कब के मार दिए गए।
घुटनों पर चलते हुए वे जब
भूख और व्याधियाँ लाँघ रहे थे
तब कोई भी नहीं था उनके पास
कोई भी नहीं!
माँएँ काम पर गई हुई थीं
उन्हें पालना था
और ईश्वर के पास कोई काम ही नहीं था
वह किसी को नहीं पाल सकता था।
मैं नहीं करता भरोसा उतना लोरियों और प्रार्थनाओं पर
जितना कि दवाइयों पर
पर उसके लिए मुझे सरकार के भरोसे रहना था
और मुझे सरकार पर कोई भरोसा नहीं था
सरकार ईश्वर के भरोसे चुनकर आई थी।
बच्चे कब के मार दिए गए
और जो दुर्भाग्य से नहीं मरे
उनमें से बहुत भविष्य में आत्महत्या कर लेते थे
आत्महत्या के इतने अनगिनत कारण थे
कि शासक इस तरफ़ से निश्चिंत रहा करते थे
उनके हिस्से एक भी अपराध-कथा नहीं थी।
बच्चे तो कब के मार दिए गए
और जो दुर्भाग्य से नहीं मरे
हत्या के काम में लगा दिए गए
वह ईश्वर के लिए घूम-घूमकर हत्याएँ करते थे।
वे इस हद तक जीवित थे कि सिर्फ़ मार सकते थे
और इस हद तक मुर्दा कि
उस ईश्वर को हिसाब भी नहीं दे पाते—
आख़िर उन्होंने इतने लोगों को क्यों मारा।
वे दुःखी नहीं होते
निराश भी नहीं
रोते तो कभी नहीं थे
हाँ अकेले पड़ जाने पर क्षमा ज़रूर माँग लेते थे
लेकिन जब भीड़ में होते
तब अपने हाहाकार से
लोरियों और चीख़ों का दम घोंट देते थे
इस तरह इस पृथ्वी पर
हम बच्चों का यही जीवन-चक्र था
जिसे शासकों ने निर्धारित किया था!
- रचनाकार : रवि प्रकाश
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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