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आख़िरी चिट्ठी

akhiri chitthi

बाबुषा कोहली

बाबुषा कोहली

आख़िरी चिट्ठी

बाबुषा कोहली

सुग्गे के पंख-सा दुपट्टा

जिसके एक छोर में बँधी रहती स्मृतियों की इलायची हमेशा

दूजी गाँठ में सत्तर बरस लड़ने का वादा

पेड़ पर टिके खड़ी पहाड़ी गाँव की एक साँझ

जिसकी परछाईं मैदानों तक खिंच जाती

रंग-बेरंगे मौसम के धागे से मैं काढ़ती

रूमाल पर नाम तुम्हारा

नदी के तरौंस पर बैठे किसी मासूम झगड़े के बाद

तुम्हारी तर्जनी के पोर से झर आती

मेरे माथे पर नर्मदा रंग की बिंदी

और

दुःख की छोटी पगडंडी में एक जोड़ी परछाईं की आवाजाही

बस! इतना ही तो चाहा था

पीठ के तालाब में तड़प कर मर गई

तुम्हारे होंठ की मछली

शीशी में भर कर सिरा आऊँ मैं नदी के तरल में

तुम्हारी अधबुझी सिगरेट जैसा मेरा अधसुलगा मन

मगर अफ़सोस!

कि मेरे शहर की नदी किसी भी नेशनल हाइवे पर उफना जाए

वो तुम तक नहीं पहुँच सकती

कोई जो देखना चाहे समंदर का घना सूनापन

जाए

झाँके तुम्हारी आँखें

तुम्हें भेजने थे

दुपट्टा

साँझ

बिंदी

तुमने मेरी चिट्ठी का जवाब तक भेजा

कोई अफ़सोस होगा तुम्हें

जब अचानक बिन जताए एक दिन कैलेंडर में मेरी साँसों का इतवार जाएगा?

एक दिन

शहरों के बीचोंबीच रास्ते बना कर आएगी नदी

तुम्हें देने मेरी यह आख़िरी चिट्ठी

तुम नदी को मुट्ठी भर जौ-तिल देना

स्रोत :
  • रचनाकार : बाबुषा कोहली
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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