लहरों उठो
lahron utho
किनारों को छोड़कर
दूर अंदर चला गया है समुद्र
और पीछे छोड़ गया है
अनगिनत तड़पते जलचर
इस शाम में समुद्र के बहुत से रंग लेकर
सूरज कहीं भाग गया है
कहाँ छिप गया होगा चालाक
कह नहीं सकते
जो आवाज़ें नारियल के पेड़ों के झुरमुटों से आ रही हैं
वे लहरों की गर्जना हैं
और सन्नाटों ने चुराकर उन्हें क़ैद कर रखा है
कह नहीं सकते
समुद्र में भाटा है या किसी मंदी का असर
पानी की अर्थव्यवस्था पर
लहरें कब लौटेंगी पूरी रंगत में
फिर नाचती हुई हमारे पाँवों पर
कह नहीं सकते
हमारे आत्मा के अंतरिक्ष में
हवा छन-छन के बहुत पतली हो गई है
पेड़ों की पत्तियां हैं बिलकुल स्थिर
ध्यान की मुद्रा में
स्मृतियों के कुछ पक्षी उड़ रहे हैं
पर उन्हें अपनी दिशाओं को लेकर भ्रम है
इतना कलरव मचता है कि
जहाँ बैठा हूँ उस जगह को छोड़कर
कहीं और जाना होगा
कठिन समयों में संघर्ष करने के तारे हैं
जो बहुत थोड़ी संख्या के बावजूद
चटख-चमक रहे हैं—शुक्र है
मैं अकेला चला आया इस मावस की रात को
और अपने चाँद के उगने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ
पता है दादा, ये जो पुराना शहर है
अपने काठ होते हृदय के लिए
रोज़-रोज़ तुम्हारे पास आता है
और तरंगों से अपनी बस्तियों के लिए
थोड़ी धड़कनें ले जाता है
दादा जगो!
उत्सव जीने का प्रमाण है
मन मार के बैठने से ज़िंदगी रूठ जाती है
उठो कि नाविक उतरेंगे अभी
अपनी नावें लेकर तुम्हारे जल में
एक लंबी यात्रा पर
उस ओर जहाँ नवजात शिशु की तरह
आँखें खोलते द्वीप हैं
तुम्हारे चलने से ही जागेंगे वनस्पतियों के रंग
इतिहास में सो गई सदियाँ जागेंगी
जिन्हें लूटकर ले गए थे लुटेरे,
टेरती हुई अपनी संगिनों का गीत
जांता, कटनी, चैता और फाग जागेंगे
दौड़कर कूदेंगे उदास बच्चे
मींचते अपनी आँखें
पानी में छप-छप छपाक
आसमान के सीने में भी उठेगी लहर
बंद दरवाज़ों से बाहर निकल आएगा शहर
लहरों उठों!
कि दुनिया में लगा रहेगा चाँद का आना-जाना
- रचनाकार : अनिल मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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