रोबदार आदमी ने दो सोने के दाँतों की जँभाई ली।
मुझे भी जँभाई आने लगी।
एक आलीशान आश्चर्य की चर्चा हुई
उसमें भी विस्थापित टिपरिया होटल में
मेरा छोटा भाई तश्तरी-प्याले धो रहा था।
मैंने उसे दो लात लगाई और ठीक बाएँ मुड़कर
ब्राह्मण पारा की एक गंभीर मोटी दीवाल से
सटकर चलता गया—
रिश्तेदार मुझे दबाकर चलाता था।
खड़े-खड़े मैं घसीटा गया।
थककर नीचे बैठते ही
दीवाल और ऊँची हो जाती थी।
छलाँग लगाने की मेहनत की तरह।
फिर जीवित दिखने के लिए
इधर-उधर हिलते हुए
थोड़ी-बहुत कोशिश
छलाँग लगाने की
जिसमें ख़ास-ख़ास लोगों के लिए
दीवाल के बीच चार क़ीलों से ठुका
अपना ही इकतीस साल पुराना
कपड़े पहने हुए
मात्र छलाँग लगाता हुआ एक फ़ोटो ही।
फ़ोटो में बाएँ हाथ से
क़मीज़ की जेब दबाए हुए।
जेब में अठन्नी थी
या फ़ोटो में बचत की
आठ आने की स्थिरता!
और सामने चहल-पहल करती आबादी
आठ बजे रात को चली गई
मैं वहीं रहा वाला मज़ाक़ करता हुआ
हँसोड़ दोस्त, ब्राह्मण पारा की
गंभीर मोटी दीवाल से
पलस्तर उखाड़ता, भागता हुआ
चौखड़िया पारा जाएगा या मसान गंज।
पलस्तर के उखड़ने से
मुझे गुदगुदी होती थी।
ईंटें उखाड़ेगा तो हँस दूँगा
जैसे हँसना एक गोरिल्ला उदासी होकर
एक ज़बर्दस्त तोड़फ़ोड़ की कार्रवाई की तरह ठहाका मारना
जिसमें ब्राह्मण पारा की गंभीर मोटी दीवाल की जगह
समतल मैदान वाला खेलकूद वाला मज़ाक़ करता हुआ
हँसोड़ दोस्त—
चर्चा ने मुझे इस तरह उखाड़ा
कि मेरी पूरी बाँह की क़मीज़ उस दीवाल पर फैली थी
क़मीज़ की दोनों कलाई पर कीलें ठुकी थीं
आराम करने के पहले
जिस कील में मैं कपड़े टाँगता था।
वह भविष्य नहीं था।
निश्चय ही हमारा भविष्य नमस्कार हो गया।
जाते वक़्त जयहिंद था
लगभग जयहिंद
सरासर जयहिंद
एक राजनीतिक नमस्कार भाई साहब!
ख़ुदा हाफ़िज़ सैयद ग़ुफ़रान अहमद!!
हर बार धक्का-मुक्की में अदब के साथ मुस्कुराकर
पट्टे वाली चड्डी पहने हुए मैं अलग हुआ।
कंधे पर तौलिया हो गई।
जँभाई हो गई।
सुबह-सुबह नहाना हो गया
साबुन की एक बट्टी हो गई।
बाएँ नहानी घर हो गया
दाहिने पेशाबघर होगा।
चड्डी में पत्नी की फटी-पुरानी साड़ी की
मज़बूत किनार के नाड़े में गठान लगाता हुआ
परिवार हो गया।
या एक लंबी क़ीमत दिमाग़ में नाड़े की तरह पड़ी हुई
जिसकी गठान खोलने या तोड़ने की कोशिश में
मेरी हर चाल क़ानून के गिरफ़्त में थी,
सोचते ही विचार क़मीज़ और पतलून पहनकर खड़ा हो गया
हाय! मैं चड्डी पहनकर अलग हुआ?
क्या! सौम्य भुखमरी थी
कि ख़ानसामा अच्छा खाना बनाता था।
मैं नागरिक हो गया।
या अनिमंत्रित रह गया।
दिमाग़ के पिछवाड़े की दीवाल फाँदकर
कचहरी के पिछवाड़े के घूरे में उतर
ज़िंदगी दफ़्तरी उपस्थिति हो गई।
हाय! हाय! आँखों को बाँधी गई पट्टियों की
बनी हुई पट्टे वाली चड्डी में
कचहरी का न्यायाधीश नाड़े डालता हुआ बैठा था।
और ऊपर की खिड़की से चमकीला बिल्ला लगाए
अर्दली मुझको घूरता था,
क्या मैं दुमंज़िला से नंगा दिखता था!
अर्दली मुझको कचहरी के घूरे से
पुराने कार्बन काग़ज़, शासन सेवार्थ लिफ़ाफ़े
पुरानी सरकारी टिकटें ढूँढ़ते देख लिया था।
इसी कार्बन काग़ज़ से
मेरे छोटे भाई की शक्ल
मुझसे मिलती-जुलती थी।
कार्बन काग़ज़ से रोबदार आदमी का लड़का
हूबहू रोबदार आदमी हो गया।
लेकिन मैं अपने बाप की तरह नहीं था
मैं अपने दोस्त की तरह नहीं था।
मैं अपने दुश्मन की तरह नहीं था।
मैं संविधान भूल गया था।
न्यायाधीश की नाक बहुत लंबी थी।
मेरी नाक बेढंगी थी,
क्या शक्ल थी,
खाना खाने के बाद पान के ठेले वाली दृष्टि
नुकीली तेज़
अपने को ही आँखों की जगह चुभ रही थी।
दौड़-धूप हुई तो ब्राह्मण पारा से भागता-भागता
हँसोड़ दोस्त ईदगाह-भाटा तक चला गया।
मैं नौकरी की तरह सड़क में बाएँ चलते हुए
नौकरी की तरह बाएँ चलता रहा।
नौकरी की तरह पाँच घंटे सो लिए।
नौकरी की तरह चार अख़बार पढ़ लिए।
राम टॉकीज़ या सोचकर कृष्णा टॉकीज़ हो लिए।
फ़ुरसत के समय सड़क के बीच आकर
टेनिस के खेल के मैदान से दो मील दूर
आने-जाने वाली मोटरगाड़ियों
और भीड़ से होने वाली दुर्घटनाओं से
बचने का अभ्यास करता हुआ पाया गया।
न टाँग टूटी, न हाथ टूटा, न विश्वविद्यालय, न कृष्णा टॉकीज़
न डाक बंगला, न दिल्ली, न बनिया पारा।
सही सलामत होता हुआ, इतना ठहरा हुआ भागा
कि एक पूरी की पूरी
चहल-पहल आबादी
मेरे पैरों से विस्थापित हो गई।
मैं पिछड़ गया।
या एक तीन मंज़िला मकान ही
मेरे पैरों से चल रहा होगा।
बोझ लादने में बेईमानी की हद है
जबकि तीन मंज़िला मकान के
केवल दो कमरों में रहता था
जिसका एक पूरा का पूरा कमरा पाख़ाना था—
जब लौटता था
मेरा हँसोड़ दोस्त मेरे पेट की ख़राबी का
मज़ाक़ उड़ाता था।
या शक्ल पर ज़रूरत से ज़्यादा कटे हुए बाल का।
सोनारपारा से आते-आते रोबदार आदमी के बाप के बाल
चाँदी की तरह सफ़ेद थे।
चाँदी और सोने की दुकान में
शायद बाल कटवाने घुसा होगा।
मेरा बाप ख़िज़ाब लगाकर
मुझे सब्ज़ी बाज़ार में ढूँढ़ता रहा।
लेकिन उसे मेरा छोटा भाई मिल गया,
ईंटे पर बैठकर नउवे से सिर घुटाता होगा।
- पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 56)
- रचनाकार : विनोद कुमार शुक्ल
- प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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