कुमाऊँ
kumaun
मैं बहुत दूर से थका-हरा आया हूँ।
मुझे प्रश्रय दो कुमाऊँ
ये तुम्हारे ऊँचे पर्वत जिन पर जमा ही रहता है।
बादलों का डेरा
कभी दिखते कभी विलुप्त होते
ये तिलिस्मी झरने तुम्हारें सप्तताल
तुम इनके साथ कितने भव्य लगते हो कुमाऊँ
शाम को घास का गट्ठर सर पर रखे
टेढ़े-मेढ़े रास्ते से घर लौटती
घसियारी गीत गाती औरतें
राजुला की प्रेम कहानियों में डूबा
हुडुक की धुन पर थिरकता
वह हुड़किया नौजवान
उस बच्चे की फटी झोली से उठती
हींग की तेज़ महक
तुम उसकी महक में बसे हो कुमाऊँ
यह मौसम सेबों के सुर्ख़ होने का है।
आडुओं की मिठास उतरने का है
और तुम्हारी हवाओं में कपूर की
तरह धुल जाने का है
उनके भी घर लौटने का मौसम है।
जिन्हें घर लौटते देखकर मीलों दूर से
पहचान जाती है तुम्हारी चोटियाँ,
कुमाऊँ!
- रचनाकार : केशव तिवारी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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