जब ढाई मिनट एक बड़ा समय था
तब ढाई महीने तक मसख़री थी और चुप्पी
अब हर ढाई घंटे पर मृत्यु का लेखा-जोखा है।
ढाई महीने में कितने मास्क बनाए जा सकते हैं
जाँच के उपकरण जुटाए जा सकते हैं
सफ़ाईकर्मी, डॉक्टर, नर्स, पुलिस और प्रशासन के लिए
ज़रूरी या कामचलाऊ तैयारियाँ की जा सकती हैं
मृत्यु के आँकड़ों में बदलते आदमी को
आदमी की मौत मरने की सूची में रखा जा सकता है।
यह सवाल किससे किया जा सकता है
कि इसके लिए कुछ नहीं चाहिए था आँख और जज़्बे के सिवा
ढोंग को त्यागने और संवेदनशीलता के अलावा
और कुछ नहीं चाहिए था
बस हमें नागरिक मानना चाहिए था।
हम निरक्षर भी थे तो हमारा सहज ज्ञान अपार था
सीधी, सहज और सच्ची बातों को सुनने
वैसा व्यवहार करने
और मनुष्य मति में रहने की
हमारी लंबी परंपरा थी
वह आज भी अक्षुण्ण है।
हम अपने ही देश में रहे और ख़तरे से अनजान रहे
हम अपने ही देश के वीराने में
जहाँ-तहाँ पाए जा रहे हैं
अपनी पोटली सँभाले
अपना ठौर खोजते हुए।
हम भरोसेमंद नहीं रहे या कि नागरिक नहीं रहे
यह किसे पता होगा, इस पर बात होगी
पर हम निरापद नहीं हैं
हम निगरानी में हैं, यह सबको पता है।
क्या हमारा भविष्य निगरानीशुदा भविष्य होगा
क्या हमारा समय बदल रहा है
जिसमें से सरकती जा रही हैं हमारी बनाई जगहें
क्या हम अपनी ही जगहों पर हैं हतप्रभ
क्या सभी दीवालें टूट गईं कि टूटने को हैं
क्या हम जीने के लिए फिर से परिभाषित होंगे
स्वीकार, अस्वीकार या दरकिनार की तरह।
सब कुछ खुला हुआ है,
दिखाई देता हुआ पारदर्शी
जो सिर्फ़ भूख नहीं, लाचारी और बेबसी से भी कुछ अधिक है
नागरिकता, स्वतंत्रता और परस्पर का आख़िरी समय बीत रहा है
कुछ है सर्वाधिक दख़ल और अधिकार-सा कुछ है
कुछ संप्रभु-सा
कुछ नियामक-सा कुछ है
हमें खाद-पानी की तरह देखता हुआ।
स्रोत :
रचनाकार : नवल शुक्ल
प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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