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कितने क़दमों के बाद गलने लगेगी देह?

kitne qadmon ke baad galne lagegi deh?

अशोक कुमार पांडेय

अशोक कुमार पांडेय

कितने क़दमों के बाद गलने लगेगी देह?

अशोक कुमार पांडेय

और अधिकअशोक कुमार पांडेय

    एक तारा टूटता है और घाव धरती की देह पर होता है पैवस्त

    सपनों के टूटने के घाव अदेखे से बहते रहते हैं धमनियों में

    उपेक्षाएँ हृदय के कहीं बहुत भीतर पलती रहतीं असाध्य विषाणुओं-सी

    जीवन किसी अंत की प्रतीक्षा के बिना भी बढ़ता रहता उस ओर

    आख़िरी सिगरेट की आग पहुँच रही उँगलियों तक

    नींद की आख़िरी संभावना दम तोड़ती एश ट्रे में

    डॉक्टर की पर्ची सुलगती है धुएँ में बिखरती जाती उम्र

    यह चयन है मेरा

    मेरे आख़िरी बयान में कोई संज्ञा नहीं होगी

    सर्वनाम भी नहीं।

    भीड़ है न्यायालय में

    न्यायधीश अभी-अभी मंदिर चला गया है

    ज़िरह जारी है पुरज़ोर

    मुझे मारे जाने के अलग-अलग वजूहात बताते वक़ीलों के मुँह से फेन रही है

    उसमें ताज़े ख़ून की बास है

    मुझे तुम्हारे कम हीमोग्लोबीन की याद आती है

    ज़ोर से दबाकर देखता हूँ अपने नाख़ून अब भी गुलाबी हैं वे ज़रा-ज़रा

    भीड़ है बहुत और तमाम जाने-पहचाने चेहरे

    अख़बारों में क़िस्से गुनाहों के मेरे

    और चैनलों पर बहस लाइव कि फाँसी बेहतर हो या उम्रक़ैद

    मैं तुम्हारी आँखों में उन बहसों के काँटे उतरते देखता हूँ

    किसी ने अभी-अभी कहा है तुम्हें चाय बनाने को

    एक तजवीज़ चाय में ज़हर देने की सुझाई गई है

    मैं सोचता हूँ कहीं उसमें दूध डाल दें कमबख़्त।

    बधाइयों की एक पूरी जमात उतर आई है आँगन में

    किसी ने कहा “तुम ही हो सकते थे यह, मैं सदा से जानता था”

    मुझे उसकी गालियाँ याद आईं

    एक ने कहा सदा से चाहता रहा हूँ कि

    तुम्हें बस कहा नहीं कि बिगड़ जाओ

    मुझे उसके श्राप याद आए

    इतना प्रेम कि मुझे उपेक्षाओं की याद आने लगी है अब

    कहाँ हो तुम

    पैरों में जूते नहीं ढंग के ठंड का कोई इंतज़ाम नहीं

    और पहाड़ है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता

    साँसें पैरों से तेज़ चलती हुईं सूरज चाँद-सा दिखता मुस्कुराता

    कहीं शिखर दीखता है कोई लौटने की कोई राह

    जितने क़दम चलो उतने क़दम दूर होता जाता सफ़र

    कोई आवाज़ नहीं, कोई दृश्य नहीं जैसे धरती हो गई हो अचानक तिरछी

    और सारे दृश्य तलहटी में जा छिपे हों

    तुम थक गई होगी

    कब तक चलोगी आँखों के सहारे

    एक छोटी-सी गाय रास्ता दिखाती चलती जाती है निःशंक

    शाम का इंतज़ार करें जब वह लौटेगी?

    यह क्यूँ कहा तुमने, कोई रास्ता नहीं लौटने का कोई वजह चलने की

    कितने क़दमों के बाद गलने लगेगी देह?

    नब्ज़ थामे मुस्कुराता है डॉक्टर, तुम नहीं बदलोगे

    पूछता हूँ कितना है वक़्त तो हँसता है वह वक़्त नहीं आया अभी

    बीमारी हुई गोया सपने हुए दीखते हैं, पर आते नहीं कभी क़रीब

    अपने विराट एकांतिक अंधकार में देखते हुए तुम्हें जैसे माचिस की लौ को

    एक शब्द आकर ठहरता है ज़बान पर फिर दाँतों के बीच ठहर जाता है

    भूख कहता हूँ तो अंतड़ियों में उतर जाता है

    प्यास कहने पर गले में रेंगता है आहिस्ता

    चुप होता हूँ अंत में

    तो आँखों में प्रतीक्षा बन कर ठहर जाता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अशोक कुमार पांडेय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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