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किसी अपरिचित की तरह देखो मुझे

kisi aprichit ki tarah dekho mujhe

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

किसी अपरिचित की तरह देखो मुझे

ज्याेति शोभा

और अधिकज्याेति शोभा

    किसी अपरिचित की तरह देखो मुझे

    जब मिलने आते हो

    सिर्फ़ एक वस्त्र पहने

    माघ के निःसीम चंद्रमा के आलोक में

    मनुष्यों के सांसारिक हठ में क्यों पड़ते हो

    मेरी देह ही है वह जगह

    जहाँ तुम्हारा गर्भगृह है

    वहाँ कोई प्यास नहीं पहुँचती

    वहाँ दूर तक जंगल फैले हैं

    बेधड़क घूमते हैं नन्हें ख़रगोश

    वहाँ प्राचीन लिपियों में दर्ज हैं सब स्पर्श

    ऋतू के अनुरूप फूलों का स्वाँग करते हैं

    मेरा चेहरा तुम्हारी स्त्री से मिलता है

    यह कभी कहना

    मृतक नहीं चाहते गहरी चुप

    उनका मन होता है

    उनकी जगह कोई पाखी ले ले

    अधर्मी बन जाना अगर संसार इसे धर्म के विरुद्ध कहे

    किंतु गेरू की तरह प्रयोग करना अपने होंठों का

    नितांत एकाकी होकर गाना वह अलाप

    जो 'गीत गोविंद' में संग पढ़ा था हमने

    तुम्हारे शोक उतने भर हैं

    जितना गुलाब तोड़ते मेरे पोरों से छलका रक्त है

    उतना भर है मेरा सुख

    जितनी तुम्हारी उच्छ्वास की कथा है

    मेरे इस रक्त में

    ऐसे देखना इस जन्म को जैसे

    एक कवि थे पूर्व जन्म में

    यक्ष्मा के कारण

    अल्प आयु में मारे गए

    रोती रही तुम्हारी कविताओं की नायिका

    बाढ़ आती रही स्वर्णरेखा में

    84 लाख योनियों में भटकने के कारण

    हमारे इस जीवन में

    रस और विष दोनों घुले हैं

    प्रेम अन्न हो गया था

    इसलिए व्यर्थ हो गई है जिह्वा की ग्रंथि

    कामना जल हो गई थी

    इसलिए भाषा जलकुंभी हो गई

    प्रेमालाप करते युगल की तरह

    घूस खाते नेता की तरह

    पथराव करती पुलिस की तरह

    क्यों तो माँगते हो पूर्णिमा जैसी चंद्रिका का स्वाद

    अभ्यागत हो किंतु

    इतना भर माँगो

    जितने में मीठा हो जाता है स्वेद

    बस इतना जिसके बिना पृथ्वी मनुजों से ख़ाली हो जाएगी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति शोभा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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