फ्रीव्हील न पकड़ने वाली साइकिल खींचते हुए
नगर पालिका के चपरासी मिश्र जी
चले आ रहे थे गर्व से।
मिश्र जी कहकर बुलाते ही
साइकिल के पैदल पर खड़े हो जाते
और मन ही मन कहते,
देखो, मैं कैसे जी रहा हूँ
कोई चिंता-फिक्र नहीं, पछतावा नहीं,
सूर्य-सा लंबा हो पृथ्वी के आँगन में
ढेरों फूल खिलाकर खुले मन से।
खुले दिल वालों का अब घोर अभाव है
पॉलिथीन बैग, बूढ़े मास्टर जी, दिखावटी जुलूस
इत्यादि का ‘प्रयोग करो और फेंक दो’ के युग में।
देखो तो, दावेदार से महरूम वह शव
जब निकला होगा निर्जन पोस्टमार्टम कमरे से
किसे ढूँढ़ा होगा उसने थमाने को अपने वायदे
कि, वह फिर से जन्म लेगा साँप बनकर, कुत्ता बनकर,
गाय बनकर अपनी बुनियाद की रखवाली करने।
बुनियाद कहाँ बनती है?
लोहाख़ाने में या कुम्हार की चाक में
बलात्कार हुई रमणी की आँखों की आग में,
फेंके गए नाजायज़ की नाभि में?
अँधेरे में बड़ी-बडी आँखों से देखते
कसाईख़ाने के हज़ारों भेड़ों के आँसुओं की चीत्कार में?
उस दिन भी उसी तरह आर्त्त-चीत्कार से
तड़प रहा था एक आदमी सड़क पर
इस ओर हज़ार लोग, उस ओर हज़ार लोग!
गतिशील सभ्यता,
सड़क पर ख़ून से लथपथ एक आदमी
भरी दुपहरी में
(अरे उसे कोई थोड़ा पानी दो
अरे, उसे कोई अस्पताल ले जाओ)
फिर शाम हुई, रात हुई, सुबह हुई,
निर्विवाद की।
नगर निगम के चपरासी मिश्र जी की
खड़खड़िया साइकिल रखवाली कर रही थी
मिश्र जी के ख़ून का सैलाब सड़क किनारे।
पेड़-पत्ते, हवा और अँधेरे के स्वर में
इस बार मिश्र जी ने कहा :
मिश्र जी कहकर पुकारने पर
साइकिल के पैडल पर
खड़े जो जाना मेरी भूल थी
सूर्य-सा लंबा हो पृथ्वी के आँगन में
फूल खिलाना हृदय लिए
दंभ करना मेरी भूल थी।
- पुस्तक : विपुल दिगंत (पृष्ठ 78)
- रचनाकार : गोपालकृष्ण रथ
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2019
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