घन और भस्म-विमुक्त भानु-कृशानु सम शोभित नए,
अज्ञात-वास समाप्त कर जब प्रकट पांडव हो गए।
तब कौरवों से शांति पूर्वक और समुचित रीति से,
माँगा उन्होंने राज्य अपना प्राप्य था जो नीति से॥
किंतु वश में कुमति के निज प्रबलता की भ्रांति से,
देना न चाहा रण-बिना उसको उन्होंने शांति से।
तब क्षमा-भूषण, नित्य निर्भय, धर्मराज महाबली,
कहने लगे श्रीकृष्ण से इस भाँति वर-वचनावली—
“दुर्योधनादिक कौरवों ने जो किए व्यवहार हैं
सो विदित उनके आपको संपूर्ण पापाचार हैं।
अब संधि के संबंध में उत्तर उन्होंने जो दिए,
हे कमललोचन! आपने वह भी प्रकट सब सुन लिए॥
कर्तव्य अब जो हो हमारा दीजिए सम्मति हमें,
रण के बिना कोई नहीं अब दीखती है गति हमें।
जब शांति करना चाहते वे लोग राज्य बिना दिए,
कैसे कहें फिर हम कि वे प्रस्तुत नहीं रण के लिए॥
जिसके सहायक आप हैं, हम युद्ध से डरते नहीं,
क्षत्रिय समर में काल से भी भय कभी करते नहीं।
पर भरत-वंश-विनाश की चिंता हमें दु:ख दे रही,
बस बात बारंबार मन में एक आती है यही॥
हैं दुष्ट, पर कौरव हमारे बंधु हैं, परिवार
अतएव दोषी भी क्षमा के पात्र बारंबार
यह सोच कर ही हम न उनका चाहते संहार,
पर देखते हैं दैव को स्वीकार ये न विचार॥
जो ग्राम केवल पाँच ही देते हमें वे प्रेम से,
संतुष्ट थे हम, राज्य सारा भोगते वे क्षेम से।
ये हाथ उनके रक्त से रँगना न हमको इष्ट था।
संबंध हमसे और उनसे सब प्रकार घनिष्ट था॥”
सुनकर युधिष्ठिर के वचन भगवान यों कहने लगे—
मानों गरजते हुए नीरद भूमि में रहने लगे।
“है कौरवों के विषय में जो आपने निज मत कहा,
स्वाभाविकी वह आपकी है सरलता दिखला रहा॥
औदार्य-पूर्वक आप उनको चाहते करना क्षमा,
आसन्न-मृत्यु परंतु उनमें वैर-भाव रहा समा।
अतएव उनसे संधि की आशा समझनी व्यर्थ है,
दुर्बुद्धियों को बोध देने में न दैव समर्थ है॥
उपदेश कोई यदपि उनके चित्त में न समाएँगे,
तो भी उन्हें हम संधि करने के लिए समझाएँगे।
होगा न उससे और कुछ तो बात क्या कम है यही,
निर्दोषता जो जान लेगी आपकी सारी मही॥”
यों कह युधिष्ठिर से वचन इच्छा समझ उनकी हिए,
प्रस्तुत हुए हरि हस्तिनापुर गमन करने के लिए।
इस संधि के प्रस्ताव से भीमादि व्यग्र हुए महा,
पर धर्मराज-विरुद्ध धार्मिक वे न कुछ बोले वहाँ॥
तब सहन करने से सदा मन की तथा तन की व्यथा,
जो क्षीण दीन निदाघ-निशि-सी हो रही थी सर्वथा।
वह याज्ञसेनी द्रौपदी अवलोक दृष्टि सतृष्ण से,
हिम-मलिन-विधु-सम वदन से बोली वचन श्रीकृष्ण से॥
“है तत्त्वदर्शी जन जिन्हें सर्वज्ञ नित्य बखानते,
हे तात! यद्यपि तुम सभी के चित्त की हो जानते।
तो भी प्रकट कुछ कथन की जो धृष्टता मैं कर रही,
मुझ पर विशेष कृपा तुम्हारी, हेतु है इसका यही॥
जिस हृदय की दु:खाग्नि से जलती हुई भी निज हिए,
जीवित किसी विध मैं रही शुभ समय की आशा किए।
हा! हंत!! आज अजातरिपु ने दया रिपुओं पर दिखा,
कर दी ज्वलित घृत डाल के ज्यों और भी उसकी शिखा॥
सुन कर न सुनने योग्य हा! इस संधि के प्रस्ताव को,
वह चित्त मेरा हो रहा है प्राप्त जैसे भाव को।
वर्णन न कर सकती उसे मैं वज्रहृदया परवशा,
हरि तुम्हीं एक हताश जन की जान सकते हो दशा॥
केवल दया ही शत्रुओं पर नहीं दिखलाई गई,
हा! आज भावी सृष्टि को दुर्नीति सिखलाई गई।
चलते बड़े जन आप हैं संसार में जिस रीति से,
करते उन्हीं का अनुकरण दृष्टांत-युत सब प्रीति से॥
जो शत्रु से भी अधिक बहुविध दु:ख हमें देते रहे,
वे क्रूर कौरव हा! हमीं से आज बंधु गए कहे।
नीतिज्ञ गुरुओं ने भुला दी नीति यह कैसे सभी—
“अपना अहित जो चाहता हो वह नहीं अपना कभी॥”
जो ग्राम लेकर पाँच ही तुम संधि करने हो चले,
औदार्य और दयालुता ही हेतु हों इसके भले।
पर “डर गए पांडव” सदा ही यह कहेंगे जो अहो!
निज हाथ लोगों के मुखों पर कौन रक्खेगा कहो?
क्या कर सकेंगे सहन पांडव हाय! इस अपमान को,
क्या सुन सकेंगे प्रकट वे निज घोर अपयश गान को।
होता सदा है सज्जनों को मान प्यारा प्राण से,
है यशोधनियों को अयश लगता कठोर कृपाण से॥
देवेंद्र के भी विभव को संतत लजाते जो रहे
हा! पाँच ग्रामों के वही हम आज भिक्षुक हो रहे।
अब भी हमें जीवित कहे जो, सो अवश्य अजान है,
हैं जानते यह तो सभी “दारिद्रय मरण-समान है”॥
अथवा कथन कुछ व्यर्थ अब जब क्षमा उनको दी गई,
केवल क्षमा ही नहीं उनसे बंधुता भी की गई।
सो अब भले ही संधि अपने बंधुओं से कीजिए,
पर एक बार विचार फिर भी कृत्य उनके लीजिए॥
क्या-क्या न जानें नीच निर्दय कौरवों ने है किया,
था भोजनों में पांडवों को विष इन्होंने ही दिया।
सो संधि करने के समय इस विषम विष की बात को,
मुझ पर कृपा करके उचित है सोच लेना तात को॥
है विदित जिसकी लपट से सुरलोक संतापित हुआ,
होकर ज्वलित सहसा गगन का छोर था जिसने छुआ।
उस प्रबल जतुगृह के अनल की बात भी मन से कहीं,
हे तात! संधि विचार करते तुम भुला देना नहीं॥
मृग-चर्म धारे पांडवों को देख वन में डोलते,
तुमने कहे थे जो वचन पीयूष मानों घोलते।
जो क्रोध उस बेला तुम्हें था कौरवों के प्रति हुआ,
रखना स्मरण वह भी, तथा जो जल दृगों से था चुआ॥
था सब जिन्होंने हर लिया छल से जुवे के खेल में,
प्रस्तुत हुए किस भाँति पांडव कौरवों से मेल में?
उस दिवस जो घटना घटी थी भूल क्या वे हैं गए,
अथवा विचार विभिन्न उनके हो गए हैं अब नए?”
फिर दुष्ट दु:शासन हुआ था तुष्ट जिनको खींच के,
ले दाहिने कर में वही निज केश लोचन सींच के।
रख कर हृदय पर वाम कर शर-विद्ध-हरिणी-सी हुई,
बोली विकल तर द्रौपदी वाणी महा करुणामयी॥
“करुणा-सदन! तुम कौरवों से संधि जब करने लगो,
चिंता व्यथा सब पांडवों की शांत कर हरने लगो।
हे तात! तब इन मलिन मेरे मुक्त केशों की कथा,
है प्रार्थना, मत भूल जाना, याद रखना सर्वथा॥”
कह कर वचन यह दु:ख से तब द्रौपदी रोने लगी,
नेत्रांबुधारा-पात से कृश अंग निज धोने लगी।
हो द्रवित, करके श्रवण उसकी प्रार्थना करुणा-भरी,
देने लगे निज कर उठा कर सांत्वना उसको हरी॥
“भद्रे! रुदन कर बंद हा! हा! शोक को मन से हटा,
यह देख तेरी दु:ख-घटा जाता हृदय मेरा फटा।
विश्वास मेरे कथन का जो हो तुझे मन में कभी,
सच जाने तो दु:ख दूर होंगे शीघ्र ही तेरे सभी॥
जिस भाँति गद्गद् कंठ से तू रो रही है हाल में
रोती फिरेंगी कौरवों की नारियाँ कुछ काल में।
लक्ष्मी-सहित रिपु-रहित पांडव शीघ्र ही हो जाएँगे,
निज नीच कर्मों का उचित फल कुटिल कौरव पाएँगे॥”
ghan aur bhasm wimukt bhanu krishanu sam shobhit nae,
agyat was samapt kar jab prakat panDaw ho gaye
tab kaurwon se shanti purwak aur samuchit riti se,
manga unhonne rajy apna prapy tha jo niti se॥
kintu wash mein kumti ke nij prabalta ki bhranti se,
dena na chaha ran bina usko unhonne shanti se
tab kshama bhushan, nity nirbhay, dharmaraj mahabali,
kahne lage shrikrishn se is bhanti war wachnawli—
“duryodhnadik kaurwon ne jo kiye wywahar hain
so widit unke aapko sampurn papachar hain
ab sandhi ke sambandh mein uttar unhonne jo diye,
he kamallochan! aapne wo bhi prakat sab sun liye॥
kartawya ab jo ho hamara dijiye sammati hamein,
ran ke bina koi nahin ab dikhti hai gati hamein
jab shanti karna chahte we log rajy bina diye,
kaise kahen phir hum ki we prastut nahin ran ke liye॥
jiske sahayak aap hain, hum yudh se Darte nahin,
kshatriy samar mein kal se bhi bhay kabhi karte nahin
par bharat wansh winash ki chinta hamein duhakh de rahi,
bus baat barambar man mein ek aati hai yahi॥
hain dusht, par kauraw hamare bandhu hain, pariwar
atew doshi bhi kshama ke patr barambar
ye soch kar hi hum na unka chahte sanhar,
par dekhte hain daiw ko swikar ye na wichar॥
jo gram kewal panch hi dete hamein we prem se,
santusht the hum, rajy sara bhogte we kshaem se
ye hath unke rakt se rangana na hamko isht tha
sambandh hamse aur unse sab prakar ghanisht tha॥”
sunkar yudhishthir ke wachan bhagwan yon kahne lage—
manon garajte hue nirad bhumi mein rahne lage
“hai kaurwon ke wishay mein jo aapne nij mat kaha,
swabhawiki wo apaki hai saralta dikhla raha॥
audary purwak aap unko chahte karna kshama,
asann mirtyu parantu unmen wair bhaw raha sama
atew unse sandhi ki aasha samajhni byarth hai,
durbuddhiyon ko bodh dene mein na daiw samarth hai॥
updesh koi yadapi unke chitt mein na samayenge,
to bhi unhen hum sandhi karne ke liye samjhayenge
hoga na usse aur kuch to baat kya kam hai yahi,
nirdoshata jo jaan legi apaki sari mahi॥”
yon kah yudhishthir se wachan ichha samajh unki hiye,
prastut hue hari hastinapur gaman karne ke liye
is sandhi ke prastaw se bhimadi wyagr hue maha,
par dharmaraj wiruddh dharmik we na kuch bole wahan॥
tab sahn karne se sada man ki tatha tan ki wyatha,
jo kshain deen nidagh nishi si ho rahi thi sarwatha
wo yagyseni draupadi awlok drishti satrshn se,
him malin widhu sam wadan se boli wachan shrikrishn se॥
“hai tattwdarshi jan jinhen sarwagya nity bakhante,
he tat! yadyapi tum sabhi ke chitt ki ho jante
to bhi prakat kuch kathan ki jo dhrishtata main kar rahi,
mujh par wishesh kripa tumhari, hetu hai iska yahi॥
jis hirdai ki duhkhagni se jalti hui bhi nij hiye,
jiwit kisi widh main rahi shubh samay ki aasha kiye
ha! hant!! aaj ajataripu ne daya ripuon par dikha,
kar di jwalit ghrit Dal ke jyon aur bhi uski shikha॥
sun kar na sunne yogya ha! is sandhi ke prastaw ko,
wo chitt mera ho raha hai prapt jaise bhaw ko
warnan na kar sakti use main wajrahridya parawsha,
hari tumhin ek hatash jan ki jaan sakte ho dasha॥
kewal daya hi shatruon par nahin dikhlai gai,
ha! aaj bhawi sirishti ko durniti sikhlai gai
chalte baDe jan aap hain sansar mein jis riti se,
karte unhin ka anukarn drishtant yut sab priti se॥
jo shatru se bhi adhik bahuwidh duhakh hamein dete rahe,
we kroor kauraw ha! hamin se aaj bandhu gaye kahe
nitigya guruon ne bhula di niti ye kaise sabhi—
“apna ahit jo chahta ho wo nahin apna kabhi॥”
jo gram lekar panch hi tum sandhi karne ho chale,
audary aur dayaluta hi hetu hon iske bhale
par “Dar gaye panDaw” sada hi ye kahenge jo aho!
nij hath logon ke mukhon par kaun rakkhega kaho?
kya kar sakenge sahn panDaw hay! is apman ko,
kya sun sakenge prakat we nij ghor apyash gan ko
hota sada hai sajjnon ko man pyara paran se,
hai yashodhaniyon ko ayash lagta kathor kripan se॥
dewendr ke bhi wibhaw ko santat lajate jo rahe
ha! panch gramon ke wahi hum aaj bhikshuk ho rahe
ab bhi hamein jiwit kahe jo, so awashy ajan hai,
hain jante ye to sabhi “daridray marn saman hai”॥
athwa kathan kuch byarth ab jab kshama unko di gai,
kewal kshama hi nahin unse bandhuta bhi ki gai
so ab bhale hi sandhi apne bandhuon se kijiye,
par ek bar wichar phir bhi krity unke lijiye॥
kya kya na janen neech nirday kaurwon ne hai kiya,
tha bhojnon mein panDwon ko wish inhonne hi diya
so sandhi karne ke samay is wisham wish ki baat ko,
mujh par kripa karke uchit hai soch lena tat ko॥
hai widit jiski lapat se surlok santapit hua,
hokar jwalit sahsa gagan ka chhor tha jisne chhua
us prabal jatugrih ke anal ki baat bhi man se kahin,
he tat! sandhi wichar karte tum bhula dena nahin॥
mrig charm dhare panDwon ko dekh wan mein Dolte,
tumne kahe the jo wachan piyush manon gholte
jo krodh us bela tumhein tha kaurwon ke prati hua,
rakhna smarn wo bhi, tatha jo jal drigon se tha chua॥
tha sab jinhonne har liya chhal se juwe ke khel mein,
prastut hue kis bhanti panDaw kaurwon se mel mein?
us diwas jo ghatna ghati thi bhool kya we hain gaye,
athwa wichar wibhinn unke ho gaye hain ab nae?”
phir dusht duhshasan hua tha tusht jinko kheench ke,
le dahine kar mein wahi nij kesh lochan seench ke
rakh kar hirdai par wam kar shar widdh harini si hui,
boli wikal tar draupadi wani maha karunamyi॥
“karuna sadan! tum kaurwon se sandhi jab karne lago,
chinta wyatha sab panDwon ki shant kar harne lago
he tat! tab in malin mere mukt keshon ki katha,
hai pararthna, mat bhool jana, yaad rakhna sarwatha॥”
kah kar wachan ye duhakh se tab draupadi rone lagi,
netrambudhara pat se krish ang nij dhone lagi
ho drwit, karke shrawn uski pararthna karuna bhari,
dene lage nij kar utha kar santwna usko hari॥
“bhadre! rudan kar band ha! ha! shok ko man se hata,
ye dekh teri duhakh ghata jata hirdai mera phata
wishwas mere kathan ka jo ho tujhe man mein kabhi,
sach jane to duhakh door honge sheeghr hi tere sabhi॥
jis bhanti gadgad kanth se tu ro rahi hai haal mein
roti phirengi kaurwon ki nariyan kuch kal mein
lakshmi sahit ripu rahit panDaw sheeghr hi ho jayenge,
nij neech karmon ka uchit phal kutil kauraw payenge॥”
ghan aur bhasm wimukt bhanu krishanu sam shobhit nae,
agyat was samapt kar jab prakat panDaw ho gaye
tab kaurwon se shanti purwak aur samuchit riti se,
manga unhonne rajy apna prapy tha jo niti se॥
kintu wash mein kumti ke nij prabalta ki bhranti se,
dena na chaha ran bina usko unhonne shanti se
tab kshama bhushan, nity nirbhay, dharmaraj mahabali,
kahne lage shrikrishn se is bhanti war wachnawli—
“duryodhnadik kaurwon ne jo kiye wywahar hain
so widit unke aapko sampurn papachar hain
ab sandhi ke sambandh mein uttar unhonne jo diye,
he kamallochan! aapne wo bhi prakat sab sun liye॥
kartawya ab jo ho hamara dijiye sammati hamein,
ran ke bina koi nahin ab dikhti hai gati hamein
jab shanti karna chahte we log rajy bina diye,
kaise kahen phir hum ki we prastut nahin ran ke liye॥
jiske sahayak aap hain, hum yudh se Darte nahin,
kshatriy samar mein kal se bhi bhay kabhi karte nahin
par bharat wansh winash ki chinta hamein duhakh de rahi,
bus baat barambar man mein ek aati hai yahi॥
hain dusht, par kauraw hamare bandhu hain, pariwar
atew doshi bhi kshama ke patr barambar
ye soch kar hi hum na unka chahte sanhar,
par dekhte hain daiw ko swikar ye na wichar॥
jo gram kewal panch hi dete hamein we prem se,
santusht the hum, rajy sara bhogte we kshaem se
ye hath unke rakt se rangana na hamko isht tha
sambandh hamse aur unse sab prakar ghanisht tha॥”
sunkar yudhishthir ke wachan bhagwan yon kahne lage—
manon garajte hue nirad bhumi mein rahne lage
“hai kaurwon ke wishay mein jo aapne nij mat kaha,
swabhawiki wo apaki hai saralta dikhla raha॥
audary purwak aap unko chahte karna kshama,
asann mirtyu parantu unmen wair bhaw raha sama
atew unse sandhi ki aasha samajhni byarth hai,
durbuddhiyon ko bodh dene mein na daiw samarth hai॥
updesh koi yadapi unke chitt mein na samayenge,
to bhi unhen hum sandhi karne ke liye samjhayenge
hoga na usse aur kuch to baat kya kam hai yahi,
nirdoshata jo jaan legi apaki sari mahi॥”
yon kah yudhishthir se wachan ichha samajh unki hiye,
prastut hue hari hastinapur gaman karne ke liye
is sandhi ke prastaw se bhimadi wyagr hue maha,
par dharmaraj wiruddh dharmik we na kuch bole wahan॥
tab sahn karne se sada man ki tatha tan ki wyatha,
jo kshain deen nidagh nishi si ho rahi thi sarwatha
wo yagyseni draupadi awlok drishti satrshn se,
him malin widhu sam wadan se boli wachan shrikrishn se॥
“hai tattwdarshi jan jinhen sarwagya nity bakhante,
he tat! yadyapi tum sabhi ke chitt ki ho jante
to bhi prakat kuch kathan ki jo dhrishtata main kar rahi,
mujh par wishesh kripa tumhari, hetu hai iska yahi॥
jis hirdai ki duhkhagni se jalti hui bhi nij hiye,
jiwit kisi widh main rahi shubh samay ki aasha kiye
ha! hant!! aaj ajataripu ne daya ripuon par dikha,
kar di jwalit ghrit Dal ke jyon aur bhi uski shikha॥
sun kar na sunne yogya ha! is sandhi ke prastaw ko,
wo chitt mera ho raha hai prapt jaise bhaw ko
warnan na kar sakti use main wajrahridya parawsha,
hari tumhin ek hatash jan ki jaan sakte ho dasha॥
kewal daya hi shatruon par nahin dikhlai gai,
ha! aaj bhawi sirishti ko durniti sikhlai gai
chalte baDe jan aap hain sansar mein jis riti se,
karte unhin ka anukarn drishtant yut sab priti se॥
jo shatru se bhi adhik bahuwidh duhakh hamein dete rahe,
we kroor kauraw ha! hamin se aaj bandhu gaye kahe
nitigya guruon ne bhula di niti ye kaise sabhi—
“apna ahit jo chahta ho wo nahin apna kabhi॥”
jo gram lekar panch hi tum sandhi karne ho chale,
audary aur dayaluta hi hetu hon iske bhale
par “Dar gaye panDaw” sada hi ye kahenge jo aho!
nij hath logon ke mukhon par kaun rakkhega kaho?
kya kar sakenge sahn panDaw hay! is apman ko,
kya sun sakenge prakat we nij ghor apyash gan ko
hota sada hai sajjnon ko man pyara paran se,
hai yashodhaniyon ko ayash lagta kathor kripan se॥
dewendr ke bhi wibhaw ko santat lajate jo rahe
ha! panch gramon ke wahi hum aaj bhikshuk ho rahe
ab bhi hamein jiwit kahe jo, so awashy ajan hai,
hain jante ye to sabhi “daridray marn saman hai”॥
athwa kathan kuch byarth ab jab kshama unko di gai,
kewal kshama hi nahin unse bandhuta bhi ki gai
so ab bhale hi sandhi apne bandhuon se kijiye,
par ek bar wichar phir bhi krity unke lijiye॥
kya kya na janen neech nirday kaurwon ne hai kiya,
tha bhojnon mein panDwon ko wish inhonne hi diya
so sandhi karne ke samay is wisham wish ki baat ko,
mujh par kripa karke uchit hai soch lena tat ko॥
hai widit jiski lapat se surlok santapit hua,
hokar jwalit sahsa gagan ka chhor tha jisne chhua
us prabal jatugrih ke anal ki baat bhi man se kahin,
he tat! sandhi wichar karte tum bhula dena nahin॥
mrig charm dhare panDwon ko dekh wan mein Dolte,
tumne kahe the jo wachan piyush manon gholte
jo krodh us bela tumhein tha kaurwon ke prati hua,
rakhna smarn wo bhi, tatha jo jal drigon se tha chua॥
tha sab jinhonne har liya chhal se juwe ke khel mein,
prastut hue kis bhanti panDaw kaurwon se mel mein?
us diwas jo ghatna ghati thi bhool kya we hain gaye,
athwa wichar wibhinn unke ho gaye hain ab nae?”
phir dusht duhshasan hua tha tusht jinko kheench ke,
le dahine kar mein wahi nij kesh lochan seench ke
rakh kar hirdai par wam kar shar widdh harini si hui,
boli wikal tar draupadi wani maha karunamyi॥
“karuna sadan! tum kaurwon se sandhi jab karne lago,
chinta wyatha sab panDwon ki shant kar harne lago
he tat! tab in malin mere mukt keshon ki katha,
hai pararthna, mat bhool jana, yaad rakhna sarwatha॥”
kah kar wachan ye duhakh se tab draupadi rone lagi,
netrambudhara pat se krish ang nij dhone lagi
ho drwit, karke shrawn uski pararthna karuna bhari,
dene lage nij kar utha kar santwna usko hari॥
“bhadre! rudan kar band ha! ha! shok ko man se hata,
ye dekh teri duhakh ghata jata hirdai mera phata
wishwas mere kathan ka jo ho tujhe man mein kabhi,
sach jane to duhakh door honge sheeghr hi tere sabhi॥
jis bhanti gadgad kanth se tu ro rahi hai haal mein
roti phirengi kaurwon ki nariyan kuch kal mein
lakshmi sahit ripu rahit panDaw sheeghr hi ho jayenge,
nij neech karmon ka uchit phal kutil kauraw payenge॥”
स्रोत :
पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 113)
संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
संस्करण : 1994
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