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भालचंद्र नेमाड़े

और अधिकभालचंद्र नेमाड़े

    मधुमक्खियों की तरह इकट्ठा हुए हम खदेड़ी गईं मधुमक्खियों की तरह

    डालकर मक्खी खेप छत्ते पर बैठते ही गिर गए हम धुआँ धधकती आग में

    करने लगे जौहर शोले के शोले तो हम बनकर पिंड शहद के टूट गए

    बचे हुए फिर जमा होते गए दौड़ पड़े एक दूसरे के आक्रोश की ओर

    दूसरी ओर फिर लावारिस लटके उलटे धरन पर ज़बरदस्ती

    बार-बार फेंके गए पीछे छोड़ते गए पुराना और जोश में बनाते रहे नया छत्ता

    पेट से नया मोम प्रसूत कर रचते गए षट्कोण भीतरी ही तो था सबकुछ

    भिनभिनाते आए बेचैनी में सोए ज़बरदस्ती सहते नपुंसक अंधा प्यार

    अदृश्य समाज की दुहाई सँभाले हुए सीने में मधुर सवेरा पाले हुए लटकना

    इतनी बड़ी व्यवस्था में किसकी क़िस्मत में सुस्त नर और किसकी क़िस्मत में

    मादा बनना?

    पहले सूर्यकिरण में सहस्रमुखी गुनगुनाना प्राण पंखों पर लेकर कण-कण ले आना

    रंजन या बोध कलावाद जीवनवाद गिनती में नहीं थे कोई भी देशी-विदेशी वाद

    क्रांति की महिमा की रसीदें झूठी थीं। असल था वह फुलाहारी उन्माद

    किस रानी मादा की ख़ातिर पता नहीं था यह भी जैविक व्यापार से प्राप्त रोज़ का

    जिहाद।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देखणी (पृष्ठ 45)
    • रचनाकार : भालचंद्र नेमाड़े
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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