हे कवि
मेरा कवि कौन है? युग-युग में (शायद कल्प-कल्प में)
पूत भूमि भेदकर लांगल की खंडित भूमि में
मैं सृष्टि करता हूँ सीता - सोने की फसल!
मेरा रामायण, मेरा कीर्तियश कौन रचेगा?
मेरे वाल्मीकि या व्यास कहाँ अगर उनको
मैंने ही जन्म नहीं दिया तो, क्या वे नरक अयोनि-संभव है।
कुरुकुल-ध्वंस की क्रीड़ा अठारह अक्षौहिणी
उनके धनुर्गुण कहाँ, उनके बाहु-बल कहाँ
अगर मेरे खेत में नहीं, हल के फाल में नहीं, तो?
परंतु मेरा नाम कहाँ? महाभारत के ऊनविंशपर्व में क्या?
सैकड़ों युगों की तुम्हारी गठरी के भार में
छोटे हुए लांगल के कुटिल आकर्षण में
मेरी पीठ टेढ़ी हो गई लांगल की तरह टेढ़ी
आज मेरा लांगल पृथिवी की सीता के लिए नीचे तक हाथ नहीं बढ़ाता
(तुम जिसको खाद्य-संकट बोलते हो)
देवता से वर माँगते हो ‘देहि देहि’, कितने 'देहि'।
अपाणिपाद देवता, क्या देगा?
तुम्हारा देवता ‘जवनोग्रहीता’ पलायन-कामी
तुम लोगों को कुछ नहीं देते भागता है।
देवता को अन्न देते हो, आमिष चढ़ाते हो न?
देवता की जीभ भी नहीं है, कैसे चखेगा
देवता के लिए भगत के गीत?
मानव के लिए नहीं हाय मेरे लिए नहीं?
मेरे लिए एक पंक्ति कविता भी नहीं लिखते हो।
सैकड़ों युगों की लंबी दृष्टि से देखो
मैं ही तुम्हारा जन्मदाता हूँ।
तुम्हारी कविता के ह्रस्व-दीर्घ छंद,
तुम्हारे आयुस के अन्न।
मेरा लांगल, जूँआ, बक्खर, जूँआ, रस्सी, फाल,
‘फांकलीया’ चिंफौ,
यहाँ छंद नहीं है क्या?
‘बगा जहा, कला जहा, कण जहा, बेतगुटि हरापोवा नेकेरा
नेउली बरा, नलचुटि, बुदुमणि…
उनके सुनहरे कंपन में कल्पना नहीं जगाता
आशा की कल्पना?
तब अगर मेरे जीवन में स्वप्न की अफ़वाह नहीं
जीवन के उस पार मरण की निःसार गोदाम ज़रूर है,
मेरे जीवन के फाँसी काष्ठ के गीत
‘पार करो रघुनाथ संसार सागर।’
- पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 31)
- रचनाकार : महेश्वर नेओग
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1956
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