पेड़ों पर चढ़ने वाली स्त्रियों का संसार
हरि कार्की 28 जनवरी 2025
विशाल हिमालय की गोद में बसे दो देश—भारत और नेपाल एक-दूसरे के पड़ोसी हैं और दोनों साथ में 1850 किलोमीटर लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा भी साझा करते हैं। भारत और नेपाल बॉर्डर भारतीय उपमहाद्वीप के बाक़ी देशों की सीमाओं से बिल्कुल अलग हैं, अगर आप नेपाल-भारत के सीमावर्ती इलाक़े के आसपास कभी पहुँचे हैं, तो मेरी बात बख़ूबी समझ सकते हैं। यह बॉर्डर भारत और नेपाल के रिश्तों, इतिहास, साझा-संस्कृति, परंपराओं, दुखों और ख़ुशियों के धागों से बुना हुआ एक इमोशन है; जिससे जुड़ी न जाने कितनी कहानियाँ हैं, जो सुनी-कही जाती रही हैं और आज भी कही जा रही हैं।
‘द वुमन हू क्लाइम्ब्ड ट्रीज़’—स्मृति रवींद्र द्वारा अँग्रेज़ी भाषा में लिखा गया उपन्यास है। यह उनका पहला उपन्यास है। वह एक नेपाली-भारतीय लेखिका हैं। ‘द वुमन हू क्लाइम्ब्ड ट्रीज़’ बीसवीं सदी के आठवें के दशक के अंत और 1990 के शुरुआत में, भारत और नेपाल में रह रहे परिवारों के जीवन की कहानियों पर रचा-बसा है। यह एक चौदह साल की लड़की मीना की कहानी है। एक माँ और बेटी के संवाद के साथ खुलता यह उपन्यास पहले ही अध्याय से पितृसत्तात्मक समाज में रहीं स्त्रियों के संकोच और डर के अनुभवों से बनी ज़मीन पर आपको लाकर खड़ा कर देता है।
बिदाई का रंग उदास होता है
नेपाल के निकटवर्ती भारतीय राज्य बिहार के दरभंगा में अपना घर छोड़कर मीना को अपने होने वाले पति—इक्कीस साल के मनमोहन—के गाँव सबैला जाना है। वह घबराई हुई है, क्योंकि यह गाँव सीमा के दूसरी तरफ़ नेपाल में है। मीना जिसे डर हैं कि वह शायद अब कभी लौट न पाए। नेपाल उसके लिए अकल्पनीय रूप से बहुत दूर है।
मीना की माँ कावेरी उसके डर को कम करना चाहती है। वह उसे समझाती है कि कैसे ख़ुद भी उसे नेपाल छोड़कर उसके पिता के साथ भारत आना पड़ा।
“तुम किस लिए रो रही हो?”
...
“यहाँ तक कि भगवान राम ने भी देवी सीता के रूप में अपने लिए उपयुक्त पत्नी ढूँढ़ते हुए नेपाल की यात्रा की थी...”
राजाओं-नायकों की वंशावली के ब्यौरे देते इतिहास में आपको हमेशा ही पुरुषों के प्रभुत्व वाली दुनिया का चित्रण मिलेगा। इन कहानियों ने जाने कितनी सभ्यताओं की कितनी ही पीढ़ियों को छला है। इस उपन्यास की औरतें पूरी कोशिश करती हैं कि हमेशा से चली आ रही शक्ति और विरासत की कहानियों के इन नायकों को ज़रूरी कहकर उनपर थोप न जा सके। ये स्त्रियाँ मौन स्वीकृति नहीं देतीं, उन्हें अपने हिस्से की बात बोलनी है।
माँ को जवाब देती मीना कहती है—“आख़िर राम ने सीता को अपने महल से बाहर निकाल दिया…”
औरत जो पेड़ों पर चढ़ती है
स्मृति रवींद्र के इस उपन्यास के तीन मुख्य किरदार हैं, जिनके जीवन में झाँकते हुए आप इस उपन्यास के जादुई यथार्थ से जुड़ते चले जाएँगे। पहला कावेरी (माँ), दूसरा मीना (बेटी) और तीसरा प्रीति (नातिन)। यह इन्हीं तीन पीढ़ियों की स्त्रियों की कहानी भी है।
उपन्यास की मुख्य कथा शुरू होने से पहले उपन्यास-शीर्षक जैसे ही नाम—द वुमन हू क्लाइम्ब्ड ट्रीज़ से जो प्रस्तावना शुरू होती है, वह इस उपन्यास में स्त्री के ‘पेड़ों पर चढ़ने का आकर्षण’ को एक ज़रूरी हिस्से के रूप में स्थापित करती है। कथा की शुरुआत पेड़ों पर चढ़ने वाली एक स्त्री की कहानी से होती है। उसका एक परिवार है। पति है, जिससे उसका दूसरा विवाह हुआ है और पति के दो बच्चे भी हैं। वह उसके दोनों बच्चों का ख़ूब ख़याल रखती है। स्त्री ने नए परिवार के जीवन को प्यार और रोशनी से भर दिया है, लेकिन इस सब से साथ उसकी कुछ इच्छाएँ भी हैं। वह बिना वजह के नियमों को नहीं मानती है। वह उन सारे नियमों को तोड़ती है जो महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करते हैं। वह हर रात अपने परिवार को बिस्तर पर सोता छोड़कर, एक पेड़ पर चढ़ने चली जाती है। वह उसकी शाखाओं में रात बिताती है और सुबह लौट आती है।
उसका पति उसको ऐसा करते देखता है। उसे उस स्त्री का पर्दाफ़ाश करना है। वह मानता है कि जो स्त्री नियम तोड़ती है, वह ज़रूर डायन होगी। एक रोज़ पूरे गाँव-रिश्तेदारों-बच्चों के साथ वह उस पेड़ पर पहुँचता है, स्त्री पकड़ी जाती है, उसके साथ वही किया जाता हैं जो हमेशा से स्त्रियों के साथ किया गया है...
पूरे उपन्यास में इस ज़रूरी रूपक का असर दिखता है और उपन्यास की मुख्य कथा—जिसे लेखक ने आठ अध्यायों में बाँटा है—शुरू होती है। पेड़ों के प्रति एक स्त्री का आकर्षण—प्रतिबंध-रोक-टोक से भरे समाज में स्वतंत्रता के लिए उनकी चाहत का प्रतीक जैसा लगता है, मानो पेड़ों पर चढ़ना थोपी गई अपेक्षाओं और दायित्वों को लात मारने जैसा हो और शांति खोजने की यात्रा पर निकलना हो।
मुझे भी साथ ले चलो
कहानी आगे बढ़ती है... खोने, दूर होने, न मिल पाने डर के बीच मीना एक घर और परिवार को छोड़कर दूसरे का हिस्सा बन जाती है। शादी के बाद वह मनमोहन के परिवार के साथ रहने के लिए सबैला (नेपाल) चली जाती है। वहाँ परिवार में कई लोग हैं—भाई अशोक, विधवा माँ सावरी देवी, बहन बिनीता, भाई की पत्नी कुमुद और जुड़वाँ बच्चे। इस सबके बीच एक स्त्री का संघर्ष लगातार चलता है। वह घर की याद में रोती है, उसे सास का कठोर व्यवहार, ताने और गालियाँ सुनते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। हताशा, प्रेम से दूर और पति के वायदा पूरे करने का इंतज़ार लगातार लंबा होता जाता है...
चार महीने तक दूर रहने के बाद मनमोहन लौटता है।
“हमारी शादी को सात महीने हो चुके हैं और मैं मुश्किल से दस दिन आपके साथ रही हूँ।”
“मुझे भी साथ ले चलो।”
“अभी उसका समय नहीं आया।”
मीना का यह दुख और अकेलापन जबकि उसका पति उससे दूर काठमांडू में है, नेपाल में रह रहीं स्रियों की एक बड़ी आबादी का सच है। जिनके पति शादी के कुछ दिनों बाद ही विदेश चले जाते हैं। उन्हें न तो अपने पतियों के साथ रहने को मिलता है और न ही उन्हें अपने माता-पिता से प्यार और स्नेह मिल पाता है।
तकलीफ़ झेल रहीं स्त्रियों का रहस्य
उपन्यास में कावेरी, मीना को विधवा की तरह रहने की सलाह देती है। यह सलाह शादी के अकेलेपन से बचने के लिए कई सदियों से तकलीफ़ झेल रहीं स्त्रियों का रहस्य है, जो गुज़रते-गुज़रते मीना तक पहुँचता है।
एक स्त्री को कई तरह से इंतज़ार करना पड़ता है। मीना का पत्नी-रूप में पति के साथ रहने का इंतज़ार तो कथा में एक रोज़ ख़त्म होता है, लेकिन फिर एक नया इंतज़ार जीवन में जुड़ जाता है, माँ बनने का। गर्भपातों के दर्द से दुखता उसका शरीर, धीरे-धीरे सुन हो जाता है।
उसका पति मनमोहन जो कि युवा क्रांतिकारियों जैसा है, उसने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और वह भी लोकतंत्र के सपने देखता है। वह अपने दोस्तों को राजशाही के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में शामिल करने के लिए उन्हें शामिल करने की कोशिश कर रहा है। नेपाल के जातीय प्रश्नों, पहाड़ों पर रहने वाले नेपालियों और तराई क्षेत्र के नेपालियों (मधेसियों) के बीच विभाजन पर उसकी बड़ी चिंताएँ हैं। इस सब के बीच दबाव में वह मीना को काठमांडू ले आता है, लेकिन इस सबमें उनका रिश्ता बिगड़ता जाता है।
इस उपन्यास की कथा एक आम पाठक के लिए नेपाल के प्रमुख राजनीतिक परिवर्तनों को भी छूते हुए निकलती है। यह जातीयता सवालों, रोज़गार और नेपाली नौकरशाही में भ्रष्टाचार से युवाओं पर होने वाले असर को भी कुछ हद तक सामने लाती है। ग़ौर करने पर दिखता है कि कथा में लेखक ने कोशिश की है कि मधेसी अनुभवों के विषय पर भी प्रकाश डाला जाए, और यह कुछ हद तक नेपाल में पहाड़ों और तराई में रहने वालों के बीच सामाजिक-राजनीतिक विभाजन को दर्शाती भी है।
आप कभी नेपाल में सुदूर पहाड़ी इलाक़ों में घूमने जाएँगे तो वहाँ बसे लोगों से आज भी किचकनी, बोक्सी, मुरकुटो, मसान, झाकरी और धामी जैसे शब्दों और अनुभवों के बारे में बातें करते सुनेंगे। इस उपन्यास में ऐसी लोक-मान्यताओं का समावेश कहानी को और भी दिलचस्प करता है, और यह उस समय के लोगों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की झलक भी देता है।
स्मृति रवींद्र की इस कथा में मीना और कुमुद देवरानी-जेठानी हैं। उनके बीच का प्यार इतना मजबूत है कि वह सेंसुअलिटी की स्थापित धारणा पर सवाल उठाता है। मीना को अपने पति से ज़्यादा कुमुद के साथ इंटिमेट होना पसंद है। वहीं कुमुद को मीना की हरकतों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और वह भी मीना के पास रहकर ख़ुश है। दोनों बारी-बारी से एक-दूसरे का नाम अपनी बाँह पर सुई से लिखते हैं। इसी तरह की नज़दीकियाँ मीना की बेटी और उसकी दोस्त साची के बीच भी हैं। वे दोनों भी अपने शरीर पर एक-दूसरे का नाम गुदवाते हैं।
एक समय ऐसा आता है जहाँ मीना पागलपन में डूबती जाती है। वहीं एक तरफ़ उसकी माँ अपने मरते हुए पति की कमज़ोरी पर खुले तौर पर ख़ुशी मनाती है, और उसकी मौत के बाद, उसके प्रेत रूप की उपस्थिति को चुनौती देती है।
स्मृति के इस कथा के किरदार बार-बार अपनी आवाज़, अपनी जगह, अपने रुझानों के लिए ऐसे ही अपरंपरागत तौर-तरीक़े तलाशते दिखते हैं।
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