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ज्यों-ज्यों समझ आती है

jyon jyon samajh aati hai

अनुवाद : दिनकर सोनवलकर

बा. भ. बोरकर

बा. भ. बोरकर

ज्यों-ज्यों समझ आती है

बा. भ. बोरकर

और अधिकबा. भ. बोरकर

    ज्यों-ज्यों समझ आती है,

    त्यों-त्यों निकटतम व्यक्ति भी होते हैं दूर,

    पुराने शब्द, रीते होकर, बेसुरे बजते हैं

    ज्यों-ज्यों अनुभूति होती है,

    त्यों-त्यों धूप पानी में घुल जाती है,

    तिरछी छायाओं में, राह भूलकर, चाँदनी मुरझा जाती है।

    जैसे-जैसे समझदारी आती है,

    वैसे-वैसे सभी मूर्तियाँ होती हैं जीर्ण

    पलकों का स्नेह जम जाता है और ज्योति बुझती है।

    अनुभव के साथ-साथ,

    कैसे वृक्ष; पंछी से नेह लगाते हैं।

    शब्द सभी मिट जाते और तालाब में ही झूमने लगते हैं।

    परिचय होते-होते,

    कैसे दूर की घंटियाँ सुन पड़ती हैं,

    दूर के रंग, सुदूर की गंध कैसे प्राणों को खींचती है।

    बोध होते-होते,

    कैसा एकाकीपन भर जाता प्राणों में

    राग-द्वेष उड़ जाते और स्वतः को ख़ुद पर ही तरस आता है।

    पीपल पर बैठा हुआ,

    बोलता है काग ‘यह अनुभूति भी एक भ्रम है’

    जब तक उत्तर खोजूँ,

    तब तक, वह धूर्त उड़ जाता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 108)
    • रचनाकार : बा. भ. बोरकर
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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