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जूता पिता का

juta pita ka

मुकेश कुमार सिन्हा

मुकेश कुमार सिन्हा

जूता पिता का

मुकेश कुमार सिन्हा

और अधिकमुकेश कुमार सिन्हा

    पहली बार पहना था तीन दशक पहले

    जब उन्होंने कहा था—

    टाइट है, काटने लगा है पैर

    तुम ही पहन लो

    पापा का संवाद था बड़े होते बेटे के साथ

    अधिकार को कमी की पैकिंग में लपेट कर

    कहा गया था शायद

    पर सुन ही नहीं सका था 'मैं'

    पहली बार

    बाँधते हुए जूते

    दिल कह रहा था

    मर्द वाली फ़ीलिंग के लिए

    ज़रूरी है

    4 नंबर के सैंडल के बदले

    7 नंबर के लेस वाले

    पिता के या पिता जैसे जूते पहने ही जाएँ

    चमकते पुराने जूते और

    आल्टर करवाए हुए पुरानी पैंट पहने

    साईकल पर

    उनके साथ

    करते हुए सफ़र

    उनसे ही बतियाते हुए बता रहा था

    पहली बार

    घर के ख़र्चे कम करने की ज़रूरत और तरीक़े

    अपनी परचून की दुकान की लाभ-हानि

    स्वयं के पढ़ाई की अहमियत और पढ़ने के सलीक़े

    पिता की हूँ-हाँ से बेख़बर

    7 नंबर के जोड़े ने शुरू जो कर दिया था दिखाना असर

    तभी तो चौदह-पंद्रह वर्षीय छोकरे को

    पहली बार समझ में आई थी

    अहमियत पिता की

    उनके मेहनत की

    और इन सबसे ऊपर

    उनके होने की

    तब से

    ज़िंदगी भी जूते और जूते के लेस के साथ

    भागती रही

    बिना उलझाए, बिना रुके

    उसी सात नंबर में

    कभी कभी पिता के साथ

    पर, अधिकतर समय उनसे दूर

    बहुत-बहुत दूर

    वो अंतिम दिन भी आया जब

    उनके चले जाने के बाद

    पिता के जूते देख

    माँ से पूछा क्या, बस कह डाला

    मैं ही पहन लूँ इसको अब...!!

    एक बार फिर

    पैर को जूते में डाल

    ख़ुद को पिता सा महसूस कर

    नज़रे दौड़ा रहा था दूर तलक

    है अब अजब सी सोच

    जिस दिन भी भीतर

    मन होता है डाँवाडोल

    पिता के जूते पहन

    दिल की धडकनों के ऊपर हलके से हथेली को रखकर

    कह उठता हूँ

    आल इज़ वेल, आल इज़ वेल

    लक्की चार्म की तरह

    शायद होता है एक संवाद

    स्वर्गवासी पिता के स्नेह के साथ

    जो बेशक है पूर्णतया आभासी

    पर होती है आत्मिक संतुष्टि

    होगा सबकुछ बेहतर

    कहीं प्लेटोनिक आशीर्वाद तो नहीं

    जिसका माध्यम भर है ये ख़ास जूता

    हाँ

    आज फिर

    पॉलिश्ड, चकमक

    पिता के जूते पहन

    बढ़ता जा रहा हूँ

    जल्दी पहुँचना जो है काम पर।

    बारह

    सोने से कुछ देर पहले

    तकियें में चेहरा भींचे

    कुछ पलों के लिए रोकी थी साँसे

    महसूसना चाहता था

    ख़ुद की मौत!

    आख़िर आत्महत्या भी तो कुछ होती है

    मरने के बाद होगा क्या

    नहीं समझ पाया

    पर, मरने से कुछ पल पहले कि

    यातना की रिहर्सल

    बता गई, नहीं है क़ुव्वत मरने की

    चाहते हुए भी

    आई आवाज़, अंदर से, मत मारो!

    किसी दिन देखा था

    शांति मोहब्बत के दूत

    सुर्ख सफ़ेद फ़ाख़्ते को

    कमरे में, चलते पंखे से टकरा कर

    थके-हारे टूटे डैने के साथ

    औंधे मुँह गिरते, बिस्तर पर

    दिल ने कहा—ऐसे ही चाहिए मौत!

    आह भरते मरने को अधीर फ़ाख़्ते पर

    एक बिल्ले ने मारा था झपट्टा

    जैसे था, उसे इंतज़ार एक मौत का

    पहुँच पाता फ़ाख़्ते के कंठ तक कुछ पानी की बूँदें

    बिल्ले के म्याऊँ में थी आवाज़

    'राम नाम सत्य है!'

    भोरे-भोरे

    निकला था सैर पर, कोई एक दिन

    एक सरपट दौड़ती मोटरकार ने

    रौंद दिया था एक आवारा कुत्ते को

    पल में, फटाक की आवाज़ के साथ

    सारी अंतड़ियाँ पेट के अंदर का माँस

    पड़े थे सड़क पर

    पर चिहुँकते हुए, दिल ने घबरा कर कहा

    नहीं मरना कुत्ते की मौत!

    चीटियाँ भी तो

    दब ही जाती हैं राहों में

    कहाँ रहता है ध्यान कि

    पैरों तले हुई हैं बहुत-सी बिलखती मौत

    यानी है ज़िंदगी तो होगी मौत

    है मौत तो बहाने अनेक

    है मौत के अंदाज़ अलग अलग

    मरते हैं कमज़ोर लाचार

    पाते हैं वीरगति बलशाली

    बेशक कहूँ नहीं मरना है

    पर

    कुछ आँखे होंगी नम

    कभी कभी,

    शायद मेरे वजह से भी होगी

    छलकते पानी की सांद्रता उच्चतम स्तर पर!

    कुछ नमक तो मुझमे भी है ही

    आख़िर मौत के बाद का सन्नाटा

    क्यों दहाड़ें मारता प्रतीत होता है!!

    स्रोत :
    • रचनाकार : मुकेश कुमार सिन्हा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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