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पैसे के बारे में एक महत्वाकांक्षी कविता के लिए नोट्स

paise ke bare mein ek mahatwakankshi kawita ke liye nots

आर. चेतनक्रांति

आर. चेतनक्रांति

पैसे के बारे में एक महत्वाकांक्षी कविता के लिए नोट्स

आर. चेतनक्रांति

और अधिकआर. चेतनक्रांति

     

    एक

    मैं पैसे नहीं कमाता
    जब बहुत ख़ुश हो जाता हूँ, तब भी 
    कोई योजना नहीं बनाता
    बस तृप्तिजी के पास जाकर कुछ शुरुआती बातें करता हूँ
    जो अरसा हो गया, शुरुआत से आगे नहीं बढ़ी

    पैसे कमाना एक अद्भुत बात है
    न कमाना उससे भी ज़्यादा 
    आप अगर पैसे नहीं कमाते 
    तो यह कुछ-कुछ ऐसा है
    कि आप जेम्स वाट हैं
    और रेल का इंजन नहीं बना रहे
    यह दुनिया विश्वासघात जैसी कोई चीज़ है

    अक्सर नहीं, 
    लगभग हमेशा मैं पैसों के बारे में सोचता हूँ
    और इस सोचने में और भी कई चीज़ें साथ-साथ सोची जाती रहती हैं
    मसलन, पैसे न कमाना
    या थोड़े-से पैसे कमाना और उन्हें खाने बैठ जाना—आगे और न कमाना;
    पुराने, जिनका शरीर आदी है, ऐसे कपड़े पहनकर किसी पुरानी, जो होते-होते 
    घर जैसी हो गई है, ऐसी सार्वजनिक जगह पर निकल जाना
    एक शहर में बरसों रहते हुए भी राशनकार्ड न बनवाना, फ़ोन न लगवाना;
    सालों पुराने दोस्तों से बार-बार ऐसे मिलना ज्यों आज ही मिले हैं
    और यूँ विदा होना ज्यों फिर मिलना बाक़ी रह गया हो;
    औरतों को देखकर सिमट जाना—खुलेआम जनाना होना;
    हिंसा का उचक-उचककर प्रदर्शन न करना—मर्दानगी पर शर्म खाना;
    अश्लील चुटकुलों पर खिसिया जाना, उनका फ़ेमिनिस्ट विश्लेषण करना;
    राजनीतिवालों पर, उनके घोटालों पर बहस न करना;
    गंभीर, उलट-पुलट कर देनेवाली मुद्राओं पर ठठाकर हँस पड़ना;
    और ख़ूबसूरत कमाऊ आदमी के पाद पर आनंदित हो उठना—
    —लगता है, ये सारी चीज़ें एक साथ होती हैं
    पैसे न कमाना इन सबसे मिलकर बनता है

    कभी-कभी यूँ भी सोचता हूँ
    कि बस पैसे ही कमाना एक काम रहता 
    तो कितना सुख होता 
    चलते-चलते अचानक भय से न घिर जाते 
    चौराहों पर खड़े रास्ते ही न पूछते रहते
    अपने साथ लंबी-लंबी बैठकों में अपने ही ऊपर मुक़दमे न चलाते
    अच्छे-बुरे और सही-ग़लत की माथापच्ची न होती 
    कैसे भी बनिये के साथ ठाठ से रह लेते—यूँ मिनट-मिनट पर सिहर न उठते
    सुंदर लड़कियों के लिए सड़कों और पार्कों की ख़ाक न छानते फिरते
    झोंपड़-पट्टियों में झाँक-झाँककर न देखते, कि क्या चल रहा है
    बड़े नितंबवाले मर्दों को देख बेकली न होती—फसक्कड़ा मार कहीं भी बैठ जाते
    और मज़े से गोश्त के फूलने का इंतज़ार करते
    दुनिया में पायदारी आती 
    और धन्नो का पाँव धमक-धमक उठता 
    एक दिन देखा कि सारे विचार और सारी धाराएँ 
    तमाम महान उद्देश्य और सारे मुक्तिकारी दर्शन
    दिल्ली के बॉर्डर पर खड़े हैं
    यूँ कि जैसे ढेर सारे बिहारी और पहाड़ी और अगड़म-सगड़म मद्रासी 
    हाजत की फ़राग़त में पैसा-पैसा बतियाते हों
    तब तो जिगर को मुट्ठी में कसकर सोचा,
    कि शुरू से ही पैसा कमाने में लग जाते 
    तो आज इस सीन से भी बचते

    दो

    लेकिन हाय, सोचने से पैसे को कुछ नहीं होता 
    न वह बनता है, न बिगड़ता है
    कितने ही सोचते बैठे रहे और सोचते-सोचते ही उठकर चले गए
    हमारे पूज्य पिताजी के पूज्य पिताजी कहा करते थे
    कि उनके पूज्य पिताजी ने उन्हें बताया था
    कि पैसे को ऐसी बेकली चाहिए
    जैसी लैला के लिए मजनूँ और शीरीं के लिए फ़रहाद को थी
    लेकिन इधर हमारे छोटू ने बताना शुरू किया है कि नहीं 
    इसके लिए, जैसाकि शिव खेड़ा 
    और दीपक चोपड़ा बताते हैं—मन और आत्मा की शांति चाहिए
    और उसमें योगा बहुत मुफ़ीद है
    उसका कहना है
    कि सोचना पैसे को रुकावट देता है
    और इस रुकावट के लिए भी आपको खेद होना चाहिए
    क्योंकि आप अगर सोचने से ख़ारिज हो जाएँ 
    तो फिर सारा सोचना पैसा ख़ुद ही कर ले
    कि उसके घर सोचने की एक स्वचालित मशीन है

    और पीढ़ियों के इस टकराव में—जिसमें मेरी कोई ‘से’ नहीं 
    इधर कुछ ऐसा भी सुनने में आया है
    कि जिनके पास पैसा है, दरअसल उनके पास इतना पैसा है
    कि कुछ दिनों बाद वे उसे बाँटते फिरेंगे
    कि जिस तरह आज हम ग़ैरपैसा लोग
    अपनी बहानेबाज़ियों और चकमों-चालाकियों से दुनिया की नाक में दम रखते हैं
    उसी तरह वे ज़रा-ज़रा-सी बात पर 
    बेसिर-पैर बहानों के सहारे
    बोरा-बोरा-भर पैसा आपके ऊपर पटक भाग जाया करेंगे
    कि जिस तरह हमारे चोर पैसे की बेकली में रात-दिन मारे-मारे फिरते हैं
    उसी तरह वे चोरी-चोरी आएँगे और आपकी रसोई में पैसे फेंककर गायब हो जाएँगे
    मैं कहता हूँ कि हाय, तब तो पैसे कमाना कोई काम ही न होगा
    तो वे बताते हैं कि नहीं भाया, 
    तब हमें ख़र्च करने में जुटना होगा
    और उसके लिए भी वैसी ही बेकली चाहिए 
    जैसी मजनूँ को लैला के लिए और फ़रहाद को शीरीं के लिए थी

    (और हाँ, 
    जिस दिन मैं यह कविता पूरी लिखूँगा
    अपने पिता के बारे में लिखूँगा 
    जिनका जाने कितना तो क़र्ज़
    मुझे ही चुकता करना है!)

    स्रोत :
    • पुस्तक : शोकनाच (पृष्ठ 60)
    • रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2004

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