जीवन—लावारिस मृत्यु मुचलका
jiwan—lawaris mirtyu muchalka
आओ, आओ स्वागत करता हूँ
मुझमें सर्वांग पिघलना चाहने वाले असफलताओं के प्रतीक
बटलोई से माड़ में गिरे हुए उफान
एक वृत्त भी जिन्हें न मिला, निस्सार आत्माएँ
बाध्यता है जीवन—बाध्यता।
वसंत में जिन्हें गूँथ न सके जाड़े के वे—अंतिम सिलसिले
हर घूँट के बाद शिथिल हो रही सलिच रिक्तताएँ
मुझमें आओ समाविष्ट होने
मैं भी एक बाध्यता हूँ केवल,
किसी संपूर्ण परिच्छेद में नहीं हूँ मैं
किसी संपूर्ण व्याख्यान में नहीं हूँ
न ही संपूर्ण कहानी में हूँ
प्रत्येक मूल रास्ते के शिलान्यास होने से पहले की
कच्ची ईंटों के मकान-सा
ढह गया हूँ प्रत्येक प्रगति के मोड़ पर
आओ मेरे ऊपर थोप दो या ढह जाओ
भग्नावशेषों और वज्राघात हुए पेड़ों
मुझे मरना नहीं है
अपर्याप्त एक लाश को भी—ढूह के लिए
मिट्टी के लिए नहीं मरना है मुझे
किधर भटकी है तुम लोगों की आस्था?
सत्य पत्थर में खुदी हुई मूर्ति की आसक्ति-सा है
हाँ, वैसा ही है,
मेरे साथ ही मर जाओ मियादहीन अस्तित्व
मंदिर से साथ ही चिथड़े हुए विश्वास
विश्वास के साथ ही खंडित हुए अशक्त देवता
आओ, स्वागत करता हूँ आओ,
अंधकार का पल्ला खोलकर
लावारिस मृत्यु मुचलके-सा बेवारिस है जीवन
संतोष है, आदमी कम-से-कम मुर्दे नहीं खाता है
यहाँ कोई नहीं देखेगा मकबरा खोदकर।
- पुस्तक : नेपाली कविताएँ (पृष्ठ 41 )
- संपादक : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
- रचनाकार : पारिजात
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1982
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