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जनमजली भूख

janamajli bhookh

अजीत रायज़ादा

अजीत रायज़ादा

जनमजली भूख

अजीत रायज़ादा

और अधिकअजीत रायज़ादा

    उमड़ रहा था अस्पताल में

    लोगों का हुजूम

    उस रूखे बिखरे बालों वाली

    अर्द्धविक्षिप्त-सी औरत को

    देखने के लिए :

    कर रहे थे सब

    उस पर थू-थू

    और दे रहे थे उसे

    अलंकृत शब्दों में मानद उपाधियाँ

    जो थीं वास्तव में

    गालियाँ

    नाकारा शराबी पति

    जाने कितने बरसों पहले

    चला गया था छोड़कर

    जब वह पेट से थी

    तीसरी बार

    और तीन और पाँच साल की

    दो लड़कियाँ

    फटे चिथड़ों में

    अधनंगी-सी लिपटीं

    चाटने लगी थीं जूठन

    हलवाई की दुकान के सामने

    पड़ी पत्तलों से

    या नोचती थीं एक दूसरे को

    मैल भरे गंदे टूटे नाख़ूनों से

    ग़ुस्सैल बिल्लियों की तरह

    हुनुमान मंदिर के सामने

    हर मंलगवार और शनिवार को

    धर्मप्राण श्रद्धालु दर्शनार्थियों द्वारा

    फेंके गए सिक्कों की

    लूट के बँटवारे से

    असंतुष्ट होकर

    हड्डियों के ढाँचे को ले

    (सभ्य भाषा में जिसे शरीर कहते हैं)

    घूमी थी वह

    गली-मोहल्लों में कितनी बार

    काम की तलाश में

    लेकिन निगोड़ा बुख़ार और

    जानलेवा खाँसी

    छुड़वा देते थे हर बार

    साठ रुपए माहवार की

    लगी-लगाई

    अच्छी-ख़ासी नौकरी

    जब साल भर का हो गया

    उसका लड़का

    मरियल पिल्ला-सा

    फोड़े फुंसियों को खजियाता

    हर समय बहती नाक को

    उल्टी हथेली से पोंछता

    उसके सूखे स्तनों को

    आम की गुठलियों की तरह

    चूसकर भी

    रात भर रिरियाता ही रहा

    तो तीन दिन से भूखी

    उस औरत ने

    जाने किस सनक में

    भोंथरे बेकार पड़े

    सब्ज़ी काटने के चाक़ू से

    चीर दिया

    पहले उसका

    फिर अपना पेट

    लोग कर रहे थे

    तरह-तरह की बातें

    हमेशा की तरह चल रही थी

    क़ैंची-सी उनकी ज़ुबान

    सबका कहना था कि

    अब वास्तव में

    ही गया है घोर कलयुग

    क्योंकि अपने ही जाये को

    डायन बनकर

    खा रही है माँ—

    इससे तो अच्छा था निपूती रहती

    (वह औरत

    यदि लोगों की बात

    सुन रही होती तो

    उनकी राय से

    ज़रूर सहमत होती)

    पर

    मैं नहीं हूँ सहमत

    लोगों से, उस औरत से

    माँ तो बस माँ होती है

    और

    डायन होती है

    जनमजली भूख।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हाशिए पर आदमी (पृष्ठ 54)
    • रचनाकार : अजीत रायज़ादा
    • प्रकाशन : परिमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1991

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