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जलते हुए शहर में

jalte hue sahar

अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

सुभाष मुखोपाध्याय

सुभाष मुखोपाध्याय

जलते हुए शहर में

सुभाष मुखोपाध्याय

तेल से चिपचिपी हरी घास

एक साथ पंक्ति में होकर

गर्दन ऊँचा करके देख रही है

किस तरह इस जले हुए शहर में

हृदय का आँचल हटाकर

कैसे आग्रह से सोया हुआ है।

अश्विन का आश्चर्य सुबह

रंग जिसका ठीक

हिलते चंपा फूल की तरह।

खड़े मनुष्यों को

बग़ल में दबाकर समय दस बजे

ट्राम गाड़ी में लटकते-लटकते चले गए।

काले-काले माथे

अदृश्य पैरों के ऊपर खड़े हैं,

जैसे आत्म-समर्पण की भंगिमा में

हाथ ऊपर करके

काले-काले माथों पर

आँखों ने जन्म लिया।

बाहर साड़ी से ढके हैं

दो सभ्य पैर

हम लोगों के दूरवर्ती भविष्य की तरह

उसकी मुख छवि कैसी है

कभी भी नहीं जान पाऊँगा।

हठात्

मेरी इच्छाएँ—

दौड़ती-भागती-सी।

मेरी इच्छा हुई जाने की

जहाँ उसकी आँखों में

उज्ज्वल नीलमणि की तरह आकाश हो।

जहाँ पर लहरें उठकर

ढक लेंगी नदी

जहाँ पर जाऊँगा

और कभी नहीं लौटूँगा

इसके बाद ट्राम से उतरकर

अर्द्ध श्वास लेकर भागने लगा।

भागते-भागते

भागते-भागते

ईंट-लकड़ी से निर्मित

एक मूर्ति ने

मुझे ढक लिया।

स्रोत :
  • पुस्तक : सदानीरा
  • संपादक : अविनाश मिश्र
  • रचनाकार : सुभाष मुखोपाध्याय
  • प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका

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