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जहाँ भीज जाता था मेरा अंधकार भरे अपराह्न में

jahan bheej jata tha mera andhkar bhare aprahn mein

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

जहाँ भीज जाता था मेरा अंधकार भरे अपराह्न में

ज्याेति शोभा

और अधिकज्याेति शोभा

    अंतिम मोड़ के पहले जहाँ घर खड़ा रहता है

    वहीं से ओझल हो जाता है रिक्शा

    देखा था, तुम थे उसमें पैरों के बीच थैला दबाए

    दोनों बाँहों के सफ़ेद किनारे कुछ ज़्यादा खुले हुए

    मानों अभी-अभी उड़ कर गए हों वहाँ से

    झुंड पखेरुओं के

    ठहर कर जो फ़िल्म का पूरा गीत सुनाता था बंसी में

    वह भी था तुम्हारे पीछे

    ओझल हो गया जितने में चाभियाँ बाँधती थी पल्लू से

    कालीबाड़ी का आकाश था वहाँ मोड़ पे

    देखा था तुम ज़रा भी देर करते तो छाता होते भी भीज जाता था मेरा अंधकार

    भरे अपराह्न में

    राजा क़ाफ़िला दीखता था

    एक बहरूपिया, दो कवि और तीन सिपाही

    संग आते थे और धूल उड़ती थी

    मसालों में आती धूप रुक जाती थी

    सोचती, कब तक राम का नाम खाएँगे सब भात में सान के

    प्रेमी होते तुम तो सच में आते

    हाथी पर नहीं रिक्शे में आते

    राजा आरक्षण के बहाने जातियों के नाम बताता था

    तुम अपनी पूर्व-प्रेमिकाओं के ही बताते

    आख़िर वहीं से ग़ायब होना कितना ठीक है

    जहाँ से कवि सांसद बन जाते हैं

    नीम का गाछ मंदिर बन जाता है एक रात में

    जहाँ बाज़ार में लाल फीते नहीं मिलते और काला रबर बाँधना पड़ता है तुम्हें मेरी चोटियों में

    अधिक पर्यटक होने के कारण

    जहाँ लाल चाय के धब्बे उभर आते हैं चुपचाप गाते हुए होंठों पे

    धारासार रात्रि में दुःख गिनाने पड़ते हैं सुख के लिए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति शोभा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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