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ईसुरी

isuri

केशव तिवारी

और अधिककेशव तिवारी

    एक बार फिर तुम्हारी

    बुंदेली धरती का

    बसंत गया है महाकवि

    सरसों के फूलों के पीले रंग

    और उसकी मादक गंध में

    लहस-लहस जाने का

    समय गया है

    यह सच है अब महीनों पहले से

    नहीं सजती है फड़ें

    फड़ों के वे आचार्य भी कहाँ

    पर ऐसा भी क्या

    बिना तुम्हारी चौकड़ियों फागों के

    गुज़र जाए बसंत

    आज भी जब युवा फगुहार गाता है

    पटियाँ कौन सुधर ने पारी

    तो नवयौवनाओं के

    चेहरे लाल हो उठते हैं

    और रजऊ का दर्द तो अब भी

    फाँस की तरह

    चुभता है युवा हृदयों में

    बसंत गया है महाकवि

    एक बार फिर तुम्हारी धरती का

    तुम्हारे नाम से धन्य होने का

    समय गया है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : केशव तिवारी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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