इच्छाएँ
ichchhayen
जिसे रात गूँथती है मिट्टी की तरह
और दिन जिसे चढ़ा देता है
किसी चाक पर
एक साँचे में ढलने के लिए
जो पकती रहती हैं उम्र की भट्ठी में धीरे-धीरे
लगातार बहती हैं रक्त में
मेरे सोने के कमरे की दीवाल से
रोज़ शाम एक बेल निकलकर
बढ़ने लगती है स्वप्नों में श्वांस दर श्वांस
वो कुछ कहती है मैं अनुसुना कर देता हूँ
कुछ दिनों बाद महसूस होता है
वो मेरी आदतों में उगने लगी हैं
और उसके शब्द बाहर निकलकर
छपने लगे हैं मेरी सुबह शाम पर
कोई दिन अपने चश्मे ठीक करता
पढ़ता है उन शब्दों को
और गहरे चिंतन में डूब जाता है
सावन की हल्की फुहारों से आते हैं
बचपन के कुछ भूल गए क़िस्से
और काटते रहते हैं
पहाड़ी के पैर एक किनारे से
किसी दिन अचानक आवाज़ आती है
मेरा भू-स्खलन अब रुकता नहीं
लाख चाहूँ तो भी
नीचे एक गहरी खाईं खींचती रहती है
मेरे निराधार होते शिला-खंड
तुम्हारे साथ और तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है
मुझे बहुत से नियमों की जानकारी नहीं है
मेरा हाथ पकड़कर खींचते जाते हो मैदान में
यह जाने बिना
कि जीत जाने के बाद भी
रेफ़री ने कितनी बार कर दिया
मुझे फ़ाउल क़रार
और छीन लिए जीते तमगे
तुम्हारे रंगों को मानता रहा मैं
सिर्फ़ क़ुदरत के खेल
यह मेरी बहुत बड़ी भूल थी
जबकि तुम बनाते थे संसदों में कानून
और सड़क पर लाल बत्ती तुम्हीं फाँदते थे
एक बड़ा उद्योगपति ग़रीबों से भीख माँगता था
और अपनी याच पर होकर सवार
निकल जाता था सात समुंदर पार
छू-मंतर
पंचकोशी परिक्रमाओं में
काँवर की तरह
कंधे पर रखकर अपनी श्रद्धा
हम माँगते थे छोटे-छोटे वरदान
पर तुम दूर निकल जाते थे
आवारा बादल की तरह आँखें मिचकाते
क्या यह संयोग था
कि उस ऊँची पहाड़ी के
घने जंगलों ने जब तुम्हें रोका
तो निचोड़ लिया अंतिम बूँद तक
दर्दो और पछताओं की रामनामी लपेटे
मैं मंदिर की चैखट पर
दीया बालने जाता हूँ
और वापस लौटता हूँ जले हाथ लिए
तुम्हारे तिरस्कार के घावों से भरा
एक और घाव को इलाज समझकर
बैठा रहता हूँ देवता के सामने
मुझे बंदर की तरह नचाती मायावी योगिनों!
एक दिन टूट जाओगी मेरे साथ-साथ
जैसे मृदभाँड
फिर प्रेत की तरह घूमोगी
ज़िंदगी के बाहर अधूरे छंदों में
- रचनाकार : अनिल मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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