हम लोगों में सबसे समझदार था नरेंद्र धीर
रामनगर की उस दुकान में सबसे बाद तक
वह रह सकता था। कभी अकेले
या कभी हरवंश कश्यप के साथ हम चले आते थे
अजमेरी गेट। एक शहज़ादी होती थी,
एक सुलोचना, एक नीलम। एक रात में
सत्रह बार उनका ब्याह होता था
नीचे ‘मोरल री-आर्मामेंट', ऊपर
एक रात में सत्रह बार यह पूछना,—
किधर से चढ़ेंगे आप? सीढ़ियों पर,
जब भीड़ बढ़ने लगेगी। दमे के मरीज़ ग़ज़लों में
जब पूछेगे अपनी बीवियों की दास्तान।
जब आदमी बेशर्म होकर
‘पब्लिक बाथरूम’ बन जाएगा चौराहों पर। तो,
किधर से चढ़ेंगे आप? रमेश गौड़
छह रुपए उधार लेकर उतार लेगा अपना पानी।
जगदीश चतुर्वेदी समाधिस्थ योगी बनकर
अपने कमरे में पड़ोस की अनारकली।
सँभालता रहेगा। मुद्राराक्षस सिर्फ़ पान खाएगा,
और थूकेगा ‘टी हाउस' की फ़र्श पर सिर्फ़
बट्रेंड रसेल।
हम लोगों में सबसे समझदार था नरेंद्र धीर
ख़ुदकुशी करने से पहले उसने
दिल्ली से फ़ुर्सत पा ली। अब अजमेरी गेट से
दिल्ली गेट तक
कमलेश्वर नई कहानियाँ बिछाते रह जाएँ दिन-रात,
सत्रह बार एक ही सवाल पूछते रहें।
राजीव सक्सेना की स्कूटर, धर्मेंद्र गुप्त की साइकिल,
श्रीकांत वर्मा की मोटरकार कहानियाँ कविताएँ
राजपथ से जनपथ तक झंडे उड़ाती रहें।
हम सभी अचेतन हो जाएँ
‘मोरल री-आर्मामेंट' की बेशर्मी के बाद। क्योंकि,
इससे ज़्यादा करने या होने का उत्पात
हम लोगों के पास नहीं है। हो सकता है जैनेंद्र जी के
पास कोई उपाय हो।
- पुस्तक : ऑडिट रिपोर्ट (पृष्ठ 66)
- रचनाकार : राजकमल चौधरी
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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