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'मानसिक रूपश्री' के प्रति

manasik rupashri ke prati

अनुवाद : यतेन्द्र कुमार

पर्सी बिश शेली

अन्य

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पर्सी बिश शेली

'मानसिक रूपश्री' के प्रति

पर्सी बिश शेली

और अधिकपर्सी बिश शेली

    किसी अदृष्ट शक्ति की यह अभिशापित छाया,

    हम सबसे अदृश्य तिरती है विचरण करती,

    इस अनेकरूपा जगती के ऊपर, यह अपने पंखों से,

    जो इतने अस्थिर हैं जिसमे फूल-फूल का सौरभ लेते,

    जैसे ग्रीष्मानिल हैं, शशि-किरनों के सदृश बरसते हैं जो

    देवदार पर्वत के पीछे; यह निज अस्थिर दृष्टि डालती,

    है प्रत्येक मनुज के उर आनन पर, विचरण करती

    जैसे सांध्य-गगन पर उठतीं गीत-हिलोरे वर्णावलियाँ,

    जैसे तारक-ज्योतित-पट पर, फैले दूर-दूर तक बादल,

    जैसे हो संगीत मधुर की बीती स्मृति, अथवा हो कुछ भी,

    जो इसकी आभा को हो प्रिय, या प्रियतर इसके रहस्य को।

    हे सौंदर्य देवि! मानव के भावों पर, रूपों पर अपने—

    वर्णों से हो राजमान करती उनको है सुंदर पावन!

    कहाँ गई तू? क्यों तूने तज दिया हमारे इस प्रदेश को?

    यह धूमिल विस्तृत उपत्यका अश्रुकणों की, कितनी निर्जन—

    औ' एकाकी? पूछ कि रवि की रश्मि बुनतीं हैं क्यों सुरधनु?

    उस सम्मुख पार्वत्य सरित पर? क्यों कोई जो कभी ज्योति से,

    उठता एक बार भर-भर कर, अब हो जाता असफल, निष्प्रभ!

    क्यों भय और स्वप्न एवं यह जन्म-मरण के प्रश्न चिरंतन,

    इस धरती की दिवसाभा पर डाल रहे हैं अपनी छाया?

    करुणामय क्यों है मनुष्य को ऐसी जगह कि जिसके ऊपर,

    घूम रहे हैं प्यार, घृणा, और आश, निराशा?

    और किसी उच्चतर विश्व से नहीं मिला है,

    अब तक किसी संत और कवि को इसका उत्तर!

    इसीलिए राक्षस प्रेत या स्वर्ग, नरक की संज्ञाएँ सब!

    बनी रही हैं ये प्रतीक अब तक उनके असफल प्रयास की!

    नश्वर जादू, जिनकी अभिव्यंजित आभा भी,

    नहीं विलग हमको कर सकती संदेहों से,

    अवसर से औ' गतिमयता ले,

    उन सबसे, जिनको सुनते या देखा करते!

    तेरी मात्र ज्योति से जैसे गिरि का सघन कुहासा फटता!

    अथवा निशा पवन के द्वारा किसी शांत संगीत वाद्य के—

    तारों से टकरा-टकरा संगीत बिखरता!

    अथवा धवल-सुधा निशीथ की निर्झरिणी के ऊपर बहती!

    जीवन के अशांत सपने भी पाते सत्य, और सुंदरता!

    प्यार, आश और आत्म प्रतिष्ठा मेघों से आते जाते हैं!

    किन्हीं अनिश्चित क्षणों हेतु ही जैसे उन्हें उधार लिया हो!

    यदि मानव होता अमर्त्य, औ' सर्वशक्तिमय,

    तो तू होती नहीं अजानी, दुखदायी जैसी तू अब है!

    तब तेरी गौरवमय गति को स्थिर कर रखता अंतराल में!

    तू संदेशवाहिनी संवेदन भावों की,

    जो प्रेमिक के नयनों में घटते, बढ़ते हैं!

    तू जो मनुज भावनाओं की पोषक जननी,

    ज्यों मरणोन्मुख ज्योतिशिखा के लिए तिमिर है!

    मत जा, अपनी परछाई के जाने पर!

    मत जा, वर्ना यह समाधि भी बन जाएगी,

    जीवन भय के सदृश तिमिरमय कटु यथार्थता।

    जब था शिशु मैं फिरता, प्रेतों की तलाश में,

    गुंजित कक्षों, गुम्फों, ध्वंसों, नखत-ज्योतिमय वन प्रांतर में।

    मृतमानव के विषयक अतिशय बातों के पीछे-पीछे,

    अपने भय कंपित चरणों से घूमा करता!

    मैं विषमय वचनावलियों को सुनता जिनको—

    सुनते, सुनते ऊब गया है तरुण आज का।

    मैंने उनको नहीं सुना, देखा उन्हें ही!

    जब जीवन के प्रश्नों पर मैं करता चिंतन गहराई से,

    जबकि पवन की मृदुल झकोरों से मधुमय होता था क्षण-क्षण!

    सभी प्रमुख वस्तुएँ जगातीं जो लाने को,

    कलियों और विहग बालों के समाचार को,

    सहसा गिरी ज्योति परछाँई तेरी मुझ पर,

    मैं भर कर चीत्कार, बद्ध कर हाथ विभोर हुआ भावों में!

    मैंने तब प्रण किया कि अपनी सर्वशक्तियाँ,

    तुझको ही कर दूँगा अर्पित, तुझको तेरे लिए नहीं क्या—

    किया वचन का मैंने पालन? अब भी अपने-

    कंपित उर से और निर्झरित-युगल नयन से

    मैं सहस्त्र घटिकाओं के प्रेतों का करता हूँ आवाहन!

    जो प्रत्येक सुप्त अपनी निस्वन समाधि में,

    अध्ययन के आवेशयुक्त या स्नेहिल उमंगमय,

    दृश्य-कुंज-पाँतों से अपनी वे निहारते मुझे रहे हैं—

    कितनी ही ईष्यालु निशा में; उन्हें ज्ञात है—

    मेरी भ्रू को कभी सुख ने चमकाया है,

    बंधनमुक्त रहा इस आशा से कि कभी तू

    अंधदासता के पाशों से मुक्त करेगी इस पृथ्वी को,

    कि तू हे अभिशापमयी मोहकता देगी उनको जो कुछ

    शब्दों से रह गया अव्यंजित!

    दुपहरी के बाद दिवस भी हो जाता है

    पावनतर गंभीर और है मधुर साम्यता

    शिशिर काल में भी, आभा शारदीय गगन पर,

    जिसे सुना या देखा जाता नहीं ग्रीष्म में

    जैसे यह हो नहीं; होना इसका संभव।

    अस्तु तुम्हारी शक्ति प्रकृति के सत्य सरीखी

    उतरे मेरे निष्क्रय यौवन पर भरदे निज

    विमल शांति का रस भावी जीवन में मेरे!

    उसके जो करता आया तेरा आराधन,

    अर्चन करता जो तेरे प्रत्येक रूप का

    जिसको तेरे सम्मोहन ने, शुभ्र सुंदरी!

    ग्रथित किया अपने से होने भीत, प्रीत करने लेकिन संपूर्ण मनुज को।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शेली (पृष्ठ 25)
    • संपादक : यतेन्द्र कुमार
    • रचनाकार : पर्सी बिश शेली
    • प्रकाशन : भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़

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